क्रमशः...*सत्रहवाँ अध्याय*(गीता-सार)
तामस-तप मूरख जन करहीं।
बपु-मन-बचन-पीर बहु सहहीं।।
अस जन हठी-अनभली होंवैं।
उचित लाभु तप कै ते खोवैं।।
परम पुनीत कर्म जग दाना।
प्रत्युपकारिन्ह देहिं सुजाना।।
देस-काल अरु पात्रइ जोगा।
देहिं दान जे सात्विक लोंगा।।
मन दबाइ निज सिद्धिहिं हेतू।
इच्छित फल पावन चित चेतू।।
मान-प्रतिष्ठा औरु बड़ाई।
कीन्ह दान जग रजस कहाई।।
बिनु सम्मान-अपात्र-अजोगा।
अधरम हेतुहिं औरु कुभोगा।।
तामस दान होय सुनु पारथ।
तामस-दान न हो परमारथ।।
हीन सच्चिदानंदघन नामा।
ऊँम-तत-सत अहँ ब्रह्म सुनामा।।
ब्राह्मण-वेद औरु यज्ञादी।
यहि तें बने सृष्टि के आदी।।
इहवइ ऊँ-तत-सत जे नामा।
अह संबोधन बस परमात्मा।।
जगि-तप-दान औरु सुभकरमा।
करिअ उचारि नाम सब धरमा।।
दोहा-करउ करम श्रद्धा सहित,सास्त्र-बिधिहि निष्काम।
नाम सच्चिदानंदघन, भजत जाउ सुर-धाम ।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
सत्रहवाँ अध्याय समाप्त।
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