डॉ0हरि नाथ मिश्र

*कसक*


कसक उठती हृदय में देख कर,मजलूम को बेघर,


हैं आए वो भी दुनिया में,अशुभ तक़दीर को लेकर।।


 


न खाने का ठिकाना है,न पानी का ठिकाना है,


मग़र गढ़ते नगर नित नव,खुले अंबर तले रहकर।।


 


हृदय पीड़ा से भर जाता,उन्हें जब भागता देखूँ,


ढूँढते निज ठिकाने को,ठिकाना ग़ैर को देकर।।


 


पसीना खुद बहाकर वो,बनाते ग़ैर की क़िस्मत,


जलाकर धूप में ख़ुद को,सजाएँ दूसरों के घर।।


 


ग़मों का दौर जब आता,सतत वो भागते-फिरते,


रखे निज शीष पर गठरी,जो रहती भाग्य नित बनकर।।


 


सभी ये राष्ट्र के गौरव,परिश्रम के पुजारी हैं,


इन्हीं का दर्द भी अपना,यही समझें सभी मिलकर।।


    


जरूरत प्रेम देने की,उन्हें सम्मान देने की,


प्रतिष्ठा है निहित इसमें,यही है राष्ट्र के हितकर।।


               ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                   9919446372


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