क्रमशः....*चौदहवाँ अध्याय*(गीता-सार)
जनम-मृत्यु अरु बृद्धावस्था।
परे सदा रह अइस ब्यवस्था।।
अस जन रहँ भव-सिंधुहिं पारा।
परमानंदय पाव अपारा।।
सुनि अस बचन कृष्न भगवाना।
पूछे तुरतयि पार्थ सुजाना ।।
गुणातीत नर जग कस होवै।
बता नाथ का लच्छन सोवै??
सतगुन- जोती,रजो प्रबृत्ती।
तमो मोह कै जे रह भक्ती।।
सुनु अर्जुन,अस कह प्रभु कृष्ना।
प्रबृति-निबृति नहिं अस जन तृष्ना।।
गुण करि सकहिं न बिचलित अस जन।
स्थित एकभाव सच्चिदानंदघन।।
सुख-दुख,माटी-पाथर-सोना।
प्रिय-अप्रिय नहिं धीरज खोना।।
निंदा-स्तुति एकी भावा।
रह बस जन समभाव सुभावा।।
भाव समान मान-अपमाना।।
कर्तापन-अभिमान न ध्याना।।
मित्र-सत्रु समभाव प्रतीता।
अहहीं अस जन गुनहिं अतीता।।
करहिं भजन जे मोर निरंतर।
तजि गुण तीनों सुचि अभ्यंतर।।
एकीभाव ब्रह्म के जोगा।
अहहिं सच्चिदानंदघन भोगा।।
दोहा-अहहुँ हमहिं आश्रय सुनहु, हे अर्जुन धरि ध्यान।
रसानंद अमृत सुखहिं,ब्रह्म-धरम तुम्ह जान।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
चौदहवाँ अध्याय समाप्त।
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