डॉ0हरि नाथ मिश्र गीता सार

क्रमशः....*चौदहवाँ अध्याय*(गीता-सार)


जनम-मृत्यु अरु बृद्धावस्था।


परे सदा रह अइस ब्यवस्था।।


     अस जन रहँ भव-सिंधुहिं पारा।


     परमानंदय पाव अपारा।।


सुनि अस बचन कृष्न भगवाना।


पूछे तुरतयि पार्थ सुजाना ।।


     गुणातीत नर जग कस होवै।


     बता नाथ का लच्छन सोवै??


सतगुन- जोती,रजो प्रबृत्ती।


तमो मोह कै जे रह भक्ती।।


    सुनु अर्जुन,अस कह प्रभु कृष्ना।


    प्रबृति-निबृति नहिं अस जन तृष्ना।।


गुण करि सकहिं न बिचलित अस जन।


स्थित एकभाव सच्चिदानंदघन।।


      सुख-दुख,माटी-पाथर-सोना।


      प्रिय-अप्रिय नहिं धीरज खोना।।


निंदा-स्तुति एकी भावा।


रह बस जन समभाव सुभावा।।


     भाव समान मान-अपमाना।।


      कर्तापन-अभिमान न ध्याना।।


मित्र-सत्रु समभाव प्रतीता।


अहहीं अस जन गुनहिं अतीता।।


     करहिं भजन जे मोर निरंतर।


      तजि गुण तीनों सुचि अभ्यंतर।।


एकीभाव ब्रह्म के जोगा।


अहहिं सच्चिदानंदघन भोगा।।


दोहा-अहहुँ हमहिं आश्रय सुनहु, हे अर्जुन धरि ध्यान।


         रसानंद अमृत सुखहिं,ब्रह्म-धरम तुम्ह जान।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


               चौदहवाँ अध्याय समाप्त।


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