डॉ0हरि नाथ मिश्र

*रिम-झिम*(लोक-गीत)


रिम-झिम पड़ेला फुहार सवनवाँ त आय गईलें सखिया, पेड़वा पे झुलेला झलुवा त दिलवा रसाय गईलें सखिया।।


      पुरुवा के झोकवा से आवेले बयरिया,


      पनिया के बूँदवा में टिके ना नजरिया।


      त मनवाँ में उठै ले कसकिया-


      सँवरिया भुलाय गईलें सखिया।।


                                 रिम-झिम....


काले-काले बदरन कै छटा हौ निराली,


बिजुरी ज चमके त भागूँ हाली-हाली।


बिरहा के अगिया से जली मोरि-


सरीरिया कुम्हिलाय गईलें सखिया।।


                       रिम-झिम....


      एको पल सोऊँ नाहीं, जागूँ सारी रतिया,


      का करूँ रामा हमरे आवे नाहीं बतिया।


      त हथवा कै गिनीला अँगुरिया-


      रतिया अपार भईलीं सखिया।।


                   रिम-झिम....।।


पिया बिनू तनिको सुहाय ना सवनवाँ,


लागै नाहीं कतहूँ उदास मोर मनवाँ।


अब त लागै जईसे बहुतै फीका-


सोरहो सिंगार भइलें सखिया।


        रिम-झिम पड़ेला...........।।


         ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


       9919446372


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