*रिम-झिम*(लोक-गीत)
रिम-झिम पड़ेला फुहार सवनवाँ त आय गईलें सखिया, पेड़वा पे झुलेला झलुवा त दिलवा रसाय गईलें सखिया।।
पुरुवा के झोकवा से आवेले बयरिया,
पनिया के बूँदवा में टिके ना नजरिया।
त मनवाँ में उठै ले कसकिया-
सँवरिया भुलाय गईलें सखिया।।
रिम-झिम....
काले-काले बदरन कै छटा हौ निराली,
बिजुरी ज चमके त भागूँ हाली-हाली।
बिरहा के अगिया से जली मोरि-
सरीरिया कुम्हिलाय गईलें सखिया।।
रिम-झिम....
एको पल सोऊँ नाहीं, जागूँ सारी रतिया,
का करूँ रामा हमरे आवे नाहीं बतिया।
त हथवा कै गिनीला अँगुरिया-
रतिया अपार भईलीं सखिया।।
रिम-झिम....।।
पिया बिनू तनिको सुहाय ना सवनवाँ,
लागै नाहीं कतहूँ उदास मोर मनवाँ।
अब त लागै जईसे बहुतै फीका-
सोरहो सिंगार भइलें सखिया।
रिम-झिम पड़ेला...........।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें