डॉ0हरि नाथ मिश्र

*गीत*(विश्वासों की होरी)


नहीं यहाँ कुछ बचा हुआ है,


सब कुछ जैसे जला हुआ है।


आपस में अब मेल न दिखता,


खंडित लगे प्रेम की डोरी।


बुझी नहीं अब तक दुनिया में-


जलते विश्वासों की होरी।।


 


अपनी सोच सनातन गहरी,


इसकी नींव सुदृढ़ है ठहरी।


पर सब कुछ अब लगता बदला,


बनी सभ्यता रिश्वतखोरी।


बुझी नहीं अब तक दुनिया में-


जलते विश्वासों की होरी।।


 


अपना और पराया चिंतन,


नहीं रहा भारत का दर्शन।


विश्व एक परिवार हमारा,


हुई भाव ऐसे की चोरी।


बुझी नहीं अब तक दुनिया में-


जलते विश्वासों की होरी।।


 


विश्व-शांति का लक्ष्य हमारा,


सदा रहा है अतिशय प्यारा।


स्नेह-रिक्त अब हुए हैं लगते,


अपने स्वस्थ किशोर-किशोरी।


बुझी नहीं अब तक दुनिया में-


जलते विश्वासों की होरी।।


 


जब संकट के बादल छाते,


उससे मुक्ति सभी जन पाते।


मूल मंत्र बस मात्र एकता,


नहीं खुले अब दान- तिजोरी।


बुझी नहीं अब तक दुनिया में-


जलते विश्वासों की होरी।।


 


भारत का परचम लहराता,


सकल विश्व की होश उड़ाता।


पर दुर्भाग्य प्रबल अब घेरी,


मची वित्त की छोरा-छोरी।


बुझी नहीं अब तक दुनिया में-


जलते विश्वासों की होरी।।


           ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


              9919446372


कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...