डॉ0हरि नाथ मिश्र

*गीत*(16/16राधेश्यामी छंद)


कब से तरस रहीं थीं आँखें,


उड़ न रहीं थीं मन-खग पाँखें।


नव प्रकाश ले अब तो आईं,


कटीं जो रातें तनहाई में।


प्रीतम पावस लेकर आए, बरसे मन की अँगनाई में।।


 


कैसे-कैसे रजनी बीती,


कैसे कह दूँ अपनी बीती?


विरह-अगन की जलन-तपन अति,


रहीं सताती तरुणाई में।


प्रीतम पावस लेकर आए, बरसे मन की अँगनाई में।।


 


साजन-मिलन सुखद-मन-भावन,


जैसे हो मनमोहक सावन।


पाकर सजनी निज साजन को,


सुध-बुध खोए अँगड़ाई में।


प्रीतम पावस लेकर आए,बरसे मन की अँगनाई में।।


 


मन-मयूर भी लगा नाचने,


हो हर्षित सजन के सामने।


भूली सजनी लख प्रियतम को,


कष्ट सहा जो विलगाई में।


प्रीतम पावस लेकर आए, बरसे मन की अँगनाई में।।


 


जो सुख मिला सजन पावस से,


शायद मिले न वह सावन से।


परम दिव्य बस वह प्रभात है,


जो है दिनकर अरुणाई में।


प्रीतम पावस लेकर आए, बरसे मन की अँगनाई में।।


          


विह्वल-मगन-दीवानी सजनी,


की थी अति विशिष्ट वह रजनी।


प्रेम-वार्ता में कब-कैसे,


रजनी बीती पहुनाई में।


प्रीतम पावस बन कर आए, बरसे मन की अँगनाई में।।


                   ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...