क्रमशः....*अठारहवाँ अध्याय*(गीता-सार)
ब्रह्महिं स्थित एकीभावा।
मुदित हृदय चित पुरुष सुभावा।।
करै न सोकइ प्राप्ति-अप्राप्ती।
लहहि परम सुख मम पराभक्ती।।
प्रबिसि मोंहि मा समुझइ मोंहीं।
बासुदेव बस सभ कछु होंहीं।।
अनासक्त जन करमइ जोगी।
पावैं मोर परम पद भोगी।।
सभ निज करम मोंहि करि अर्पन।
होइ परायन मनहिं समर्पन।।
कर्म-योग कै लइ अवलंबन।
धरहु मोंहि मा अर्जुन चित-मन।।
जीवन-मरन-कष्ट कटि जाई।
जदि मोरे मा चित्त लगाई।।
बरना नष्ट-भ्रष्ट तुम्ह भयऊ।
जदि मम बचन न मद बस सुनऊ।।
जदि घमंड बस जुधि नहिं करबो।
मिथ्या बस रनभुइँ ना जइबो।।
छत्रीपनइ सुभाव हे अर्जुन।
होइबो जुधिरत जबरन तुम्ह सुन।।
करबो सकल करम तुम्ह अबहीं।
पूर्ब बन्धनहिं परबस भवहीं।।
निज माया के बलयी बूता।
प्रभू नचावहिं सभ जग-भूता।।
दोहा-अस्तु,सुनहु हे भारतइ, प्रभू-सरन महँ जाउ।
पाइ कृपा परमातमा, परमधाम-पद पाउ।।
सोरठा-तुमहिं दीन्ह हम ग्यान,गोपनीय जे अति अहहि।
सुनु तू पार्थ सुजान,करउ जे तव इच्छा कहहि।।
दोहा-देखि सांत अति अर्जुनहिं, पुनः कहे भगवान।
अहहु तुमहिं मो परम प्रिय,पुनि मैं कहब तु जान।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372 क्रमशः.......
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