*क्यों विचलित होते हो प्यारे*
ईश्वर में करना विश्वास, एक आसरा रखो उन्हीं का.,
ईश्वर संग करो अभ्यास, रहने का आजीवन मित्रों.,
करते-करते नित अभ्यास, मन में दृढ़ता आ जायेगी.,
यही योग का है सिद्धान्त, जिसका चिन्तन उसकी प्रतिमा.,
हो जाती प्रतिमा साकार, साथ उसी का मिल जाता है.,
साथ मिला तो सकल अभाव, मिट जाता है क्षण भंगुर हो.,
मिट जाता जब सकल अभाव, तब फिर क्यों विचलित होना है?
विचलित होते हैं वे लोग, ईश्वर जिनके पास नहीं हैं.,
पड़ जाता माया का फंद, गले में उनके ईश बिना जो.,
ईश्वर माया में है भेद, माया ईश्वर की चेरी है.,
जिस घट में ईश्वर का वास, वहाँ फटकती कभी न माया.,
जिस प्राणी से ईश्वर दूर, माया का दरबार वहाँ है.,
नाच रहा मायावी जीव, माया के चक्कर में पड़कर.,
माया ही नारी का रूप, धारण कर वह खूब लुभाती.,
माया और ईश के मध्य, स्थापित रहता जीव सदा है.,
माया यद्यपि नकली तथ्य, फिर भी लगती महा सत्य वह.,
खींच-खींचकर अपनी ओर, पटका करती सब जीवों को.,
रोता चिल्लाता है जीव, फिर भी वह मनमोहक लगती.,
खता वह माया की लात, हँसता कभी कभी रोता है.,
हुआ जिसे माया का ज्ञान, माया त्याग ईश को भजता.,
ईश्वर भजन-ध्यान की शक्ति, मुक्ति दिलाती है माया से.,
जिसे मिला ईश्वर का प्रेम, वही सफल है वही मस्त है.,
वही दिव्य सुन्दर धनवान,ज्ञानवंत अति वीर बहादुर.,
समदर्शी योगी विद्वान, सभी गुणों से युक्त मनीषी.,
कभी नहीं विचलन की बात, करता ईश्वर का अनुरागी.,
ईश्वर धुन में रहता मस्त, निन्दा-वन्दन सभी निरर्थक.,
धन आये अथवा खो जाय, जीवन-मृत्यु निरर्थक सारे.,
न्याय मार्ग ही असली ध्येय, सहज बनाता ईश्वरपंथी।
रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें