इन्दु झुनझुनवाला संपादक काव्य रंगोली

वो पिता कहलाता है ।


 


पर्दे पर नजर नही आता ,


पर उसका सहयोग हरपल ,


हर क्षण जीवन भर पुत्र


परोक्ष पाता है ,


तभी आगे बढने की, 


अपनी ख्वाहिश को


 साकार कर पाता है ।


 


खिलौनो की ,स्वप्न भरी दुनिया से ,


यथार्थ की धरती पर,


महलों के खूबसूरत ख्वाब सजा पाता है ।


 


परियों के किस्से सुन-सुनकर, 


हसरते मन मे लिए


यौवन की दहली पर 


परी सा साथी ढूँढ़ पाता है । 


 


भले ही निवाले 


हाथों से ना खिलाएं हो  ,


पर हर निवाले मे ,


उसकी मेहनत की 


खुशबू उसमे पाता है ।


 


संकोची स्वभाव, 


सिर पर हाथ ना फिरा पाया हो ,


पर उसके हर बोझ को 


अपने कांधे पर वो उठा पाता है ।


 


ठोकरों से बचाने की खातिर


नसीहते दे देकर ,कठोर ,बेदर्दी,


और ना जाने क्या क्या


 उपनाम वो पाता है ।


 


अपनो के 


प्यार की तलाश मे तरसता,


जीवन भर खुद रूखी सूखी खाकर


 भी सो पाता है ।


 


कठोर से चेहरे के पीछे ,


नाजुक सा दिल लिए,जमाने की मार से


 बचाने की कोशिश मे ,


खुद मात ही पाता है ।


 


फिर भी सारे गमो को सीने मे छुपाए ,


चुपचाप इन्दु 


 गहराती भींगी रातो मे भींग भींग पाता है ।


 


वो पिता कहलाता है ,,,वो पिता कहलाता है।


 



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