काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार डाॅ०निधि अकबरपुर,अम्बेडकरनगर

नाम-डाॅ०निधि 


पति का नाम-डाॅ०सत्येन्द्र नारायण मिश्र


जन्मतिथि -20 फरवरी


शिक्षा -परास्नातक (अंग्रेज़ी एवं समाजशास्त्र) बी०एड, पीएच ०डी०,


व्यवसाय- अध्यापन


पता -अकबरपुर, अम्बेडकरनगर। 


रचनाएँ-साहित्य रश्मि एवं दर्शन रश्मि में निरन्तर प्रकाशित। 


 


रचनाएँ -


 


1## *दिव्य ज्योति* ##


 


 


तुम दिव्य ज्योति बनके, 


उर आँगन में चमके, 


तुम दिव्य ज्योति बनके, 


उर आँगन में चमके। 


 


ये चन्द्र सूर्य सब ग्रह नक्षत्र, 


तेरी ज्योति से ही प्रकाशित हैं। 


ये दसों दिशाओं में आठो पहर ,


तेरी ज्योति ही आती जाती है। 


ये जड़ -चेतन, जल -स्थल, 


तेरी ज्योति की माया जागृत है, 


पत्ता पत्ता, कोना कोना, 


तेरी ज्योति से ही सुशोभित है। 


तू मुझमे है मै तुझमें हूँ, 


तेरी ज्योति ही सबमें उजागर है।


तुम दिव्य ज्योति बनके, 


उर आँगन में चमके। 


 


यह ज्योति अलौकिक इक आभा, 


ब्रह्माण्ड को जिसने रचाया है। 


ये सिया -राम, राधा -कृष्णा, 


सबमें तेरी ज्योति निराली है। 


कोटिक अनन्त देव देवी, 


तेरी ज्योति से ही उद्भासित हैं।


जिसने पहिचाना ज्योति तेरी, 


वह सदा ही आनन्दित है। 


रमते रमते तेरी ज्योति में, 


सूर, कबीर ,तुलसी ,रैदास हुए। 


तुम दिव्य ज्योति बनके, 


उर आँगन में चमके ।


 


तेरी ज्योति का ना कोई आदि न अन्त, 


तेरी ज्योति सदा ही स्थिर है। 


यह ज्योति नव दुर्गा रूपा, 


सब विद्याओं में भाषित हैं। 


यह ज्योति सत्य शिव सुन्दर, 


परम शान्त शाश्वत है। 


जिसने देखा जिस भाव इसे, 


उस भाव में ही दिख जाती है। 


तुम दिव्य ज्योति बनके, 


उर आँगन में चमके ।


 


यह ज्योति सुरों की राग रागिनी, 


संगीत की धुन में बजती है। 


यह ज्योति ओऽम् उच्चारण स्वर, 


जिस धुन पर वसुधा नाचती है ।


ये वेद, पुराण,ग्रन्थ,उपनिषद् ,


सब ज्योति की महिमा गाते हैं। 


ये ज्योति हिमालय का शिव है, 


गंगा का उद्गम स्थल है। 


ज्योति भेद-अभेद बड़ी निर्मल,


मोक्ष मार्ग दिखलाती है। 


यह जीवन-मृत्यु नही कुछ भी, 


सब जीव- ब्रह्म का संगम है। 


इक ज्योति जो बाहर आती है, 


जा दिव्य ज्योति मिल जाती है। 


तुम दिव्य ज्योति बनके, 


उर आँगन में चमके। 


तुम दिव्य ....       


 


2-🌹मेरी अभिलाषा 🌹


 


ये गहन अंधेरा छटने दो, सूरज विहान का उगने दो, 


कल नयी किरण की आभा से, 


संतप्त हृदयों को दमकने दो। 


 


जब नव्य रश्मियाँ बिखरेंगी, 


सब आपस में मिल जायेंगे, 


प्यासी रुहों की खातिर तब, 


अन्तरिक्ष शान्ति बरसायेगा। 


 


ये दिवा तिमिर हर लेगी तब, 


दस दिशा दीप्ति फैलायेगी,


सुरभित सुमनों का खिल जाना, 


विष की स्मृति बिसरायेगी ।


 


जब हरे खेत लहरायेंगे, 


धरती सोना बरसायेगी, 


तब कृषक श्रमिक न हो करके, 


पालक पोषक कहलायेंगे। 


 


जब धरा झूम कर गायेगी, 


तरनी करताल बजायेगी, 


हर आँखों से टपका आँसू, 


मुक्ताहार बन जायेगी। 


 


जब गाँवों की गोरी जैसे, 


शहरी बाला शरमायेगी, 


तब संस्कृति भारतमाता की, 


फिर से जीवित हो जायेगी ।


 


जब भाव भरे भारतवासी, 


करुण दृष्टि अपनायेंगे, 


मोर थिरकेंगे आँगन में, 


गइया पय सरित बहायेगी। 


 


जब ऋषियों मुनियों के अर्चन से,


नव ग्रह सब देव प्रसन्न होंगे, 


तब सकल धर्म के ठेकेदार ,


ठगे धरे रह जायेंगे ।


 


जब पंडित नीति निपुण होगा,


नैतिक धर्म परम होगा, 


तब अष्ट सिद्धि नौ निधियाँ भी, 


घर -घर आवास बनायेंगी। 


 


सब कष्ट शमित हो वसुधा से, 


औषधि की नही जरुरत हो, 


जन मानस की मीठी बोली, 


सुरभित आसव बन जायेगी। 


 


तब सकल विश्व भारत माँ के, 


चरणों में नत मस्तक होगा, 


मेरे भारत का यशोगान, 


सूरज चन्दा भी गायेगा। 


 


3-*##एहसास ##* 


 ****************** 


 *मेरी खातिर तुझमें जिन्दा कोई* *लम्हा होता।* 


 *बेइन्तहाँ टूट के मै न हरगिज* *बिखरा होता ।।* 


 


 *मेरा एहसास तेरे दिल में जो पनपा* *होता।* 


 *साज के साथ मै भी नगमा बन* *गया होता।।* 


 


 *बेसबब आस में मै न तेरी यूँ खोया* *होता।* 


 *कलम के साथ ये कागज भी न* *रोया होता।।* 


 


 *खौफ़ खाती है रूह मेरी, तेरी तंज* *बातों का,* 


 *काश मुझसे भी कभी प्यार से* *बोला होता।।* 


 


 *तेरी आँखों,तेरे लफ़्जों में न मुझे* *ठौर मिला।* 


 *बन के आँसू ही सही पलकों पे* *ठहरा होता।* 


 


 *मेरे तबस्सुम में छिपे दर्द को जो* *देखा होता।* 


 *दर्द दिल का न मेरे हद से यूँ गुजरा* *होता।।* 


 


 **सोच में तेरी ये गुजरे है मेरी शाम* *-ओ-सहर* ।


 *कोई तारा मेरी मन्नत का भी टूटा* *होता।।* 


 


 *हर जगह याद तेरी याद चली आती* *है *।** 


 *मेरी साँसों पे भी तेरा ही तो पहरा* *होता।।* 


 


 *मेरे तरन्नुम में फ़क़त तेरा ही चर्चा* *रहता।* 


 *ग़ज़ल की तरहा तू भी मेरा बन* *गया होता।।* 


 


 *मिटा लो शिकवे गिले पास बैठ* *के दो पल।* 


 *सुना है साँसों का सिमटा सा दायरा* *होता।।* 


 


 4-*#############* 


*##आदमी##*


*############*


 


सौ बार टूट कर जुड़ता है आदमी, 


निज कर्म से महान बनता है आदमी। 


 


है आदमी गुरु भी, ईश्वर भी आदमी, 


गर्दन झुका के देख अंदर का आदमी।


 


भृकुटी में लिए ज्वाला,वक्ष में ये ब्रह्म को, 


क्या-क्या न कर सके ये गुणवान आदमी।


 


नदियों को बाँध दे, हवाओं को मोड़ दे, 


पानी से आग पैदा करता है आदमी। 


 


धरती का सीना चीर के अमृत निकाल दे, 


पर्वतों में राह बनाता है आदमी। 


 


ज़मी क्या ,आसमाँ में उड़ता है आदमी, 


चाँद के दर पे, घर को बनाता है आदमी। 


 


तूफाँ को पार कर जो कश्ती निकाल ले, 


सचमुच में वही तो है फौलाद आदमी। 


 


पापों का प्रलय भी रोक सकता आदमी, 


थोड़ी सी जो मानवता भर ले ये आदमी। 


 


कुछ आदमी यहाँ पर ऐसे भी हैं सुनो, 


जो आदमी के नाम पर कलंक आदमी। 


 


है खून एक सा ही, साँसें भी एक सी, 


मज़हब के नाम पर क्यूँ ,बँट गया है आदमी। 


 


निज कर्म और धर्म से गिरा जो आदमी, 


पशुता को मात देता ऐसा ही आदमी। 


 


है कौन वह दरिन्दा आदमी ज़रा बता? 


आब-ओ-हवा में जहर घोलता सा आदमी। 


 


है बेच देता देश व अपने ज़मीर को, 


कितना गिर गया है मक्कार आदमी।


 


मंहगी से मंहगी चीज़ खरीदता है आदमी, 


नींद सुख,सूकूँ की साँस को तरसता सा आदमी।


 


खुद को ही खुदा मान अकड़ता था आदमी, 


अब आदमी से डर -डर जीता है आदमी। 


 


5-#कसक#


          ************


समझ नहीं आता, 


खुद को समझाऊँ,


या चुप हो जाऊँ। 


उलझन मन की ,सुलझाऊँ ,


याऔर उलझती ,मै जाऊँ। 


वेदना सह पीड़ा की,परिभाषा बनूँ,


या कोई दवा मै बन जाऊँ। 


द्वन्द चल रहा, 


अन्तस तल पर,लडू़ँ,


या स्वतः पराजित हो जाऊँ 


अधिकार नही मेरा कोई, 


कर्तव्य निर्वाह करती जाऊँ।


समझ नही आता खुद को, 


समझाऊँ या चुप हो जाएं। 


 


जब से जन्मी,


दो सदन सजाऊँ,


पर कहीं भी,


नाम नही पाऊँ,


जिद् आती है ,


एक गेह बनाऊँ, 


निज नाम की, 


पट्टी लगवाऊँ, 


सब रूठे हैं मुझसे, 


मै भी रूठूँ,


या उन्हें मनाऊँ,


जब झूठे हैं बन्धन सारे,फिर


क्यूँ,व्यर्थ परिश्रम करती जाऊँ


समझ नही आता 


खुद को समझाऊँ


या चुप हो जाऊँ ।


 


सबके हृद की, पीड़ा समझूँ,


निज घाव किसे,मै दिखलाऊँ।


पत्थर दिल की, यह नगरी, कब तक आँसू से पिघलाऊँ।


दूषित दृष्टि से रक्षा हेतु, 


कब तक,पलक झुका 


जीती जाऊँ ।


सुनसान अंधेरो के भीतर, 


कब तक सिसकूँ,मै चिल्लाऊँ, 


मुह सी कर जी नही पाऊँगी, 


खुद में घुट कर ना मर जाऊँ। 


समझ नही आता 


खुद को समझाऊँ 


या चुप हो जाऊँ। 


 


यह एक स्त्री की 'कसक"नही, 


हर स्त्री की यही कहानी है,


मेरे पन्नों पर अंकित,


परिचत सी व्यथा पुरानी है।


 


 *स्वरचित* 


 *डाॅ०निधि* *अकबरपुर,अम्बेडकरनगर।*


कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...