अनिता मंदिलवार 'सपना'
जन्म व जन्मस्थान~ 04 फरवरी
बिहार शरीफ, जिला नालन्दा
*शिक्षा ~- स्नातकोत्तर (वनस्पति शास्त्र, हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य , पीजीडीसीए, बी•एड),
विशेष- वाणी सर्टिफिकेट
*संप्रति* ~ व्याख्याता जीवविज्ञान
शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय असोला, अंबिकापुर सरगुजा छतीसगढ़
*लेखन विधा* ~गद्य एव पद्य (कविता, ग़ज़ल, नाटक, रूपक, लेख, कहानी, लघुकथा, हाइकु, तांका, चोका)
*प्रकाशित पुस्तकें* ~सृजन समीक्षा, जीवन के रंग-दोहों के संग, सपनों की उड़ान, सच का दीपक, बसंत तुम आए क्यों, काव्यमेध, सपना की काव्यांजलि, स्वप्न सिंदूरी
संपादन-
1. अतिथि संपादक-गुलमोहर काव्य संग्रह
2. सह संपादक- ये दोहे बोलते हैं
3. संपादक- कुण्डलियाँ यूँ बोलती हैं
4. संपादक -अमलताश - काव्य संग्रह
5. संपादक- प्यार का जन्म- कहानी संग्रह
*प्राप्त सम्मान* ~छत्तीसगढ़ रत्न सम्मान 2019, नेशनल एक्सीलेंस अवार्ड, इन्टरनेशनल आइकन अवार्ड 2020 वुमन आवाज अवार्ड 2018लक्ष्मीबाई मेमोरियल अवार्ड 2019 के साथ लगभग 300 सम्मान
*संपर्क सूत्र* ~98265 19494
ईमेल- anita.mandilwarr1@gmail.com
रचनाएँ-
1.मनहरण घनाक्षरी
श्याम रंग रंगा आस,
सतरंगी मधुमास,
सुगंध पुष्प सुवास,
गीत कोई गाइए ।
आज यहाँ मरूथल,
हुआ देखो जल-थल,
बह रहा कलकल,
मेघ बन जाइए ।
बाँध गया मन मेरा,
मोह नहीं छूटा तेरा,
गली गली करे फेरा,
प्रीत छलकाइए ।
झूम झूम गाये रहे,
नाचे इठलाय कहे ,
जीवन उमंग बहे,
रंग बरसाइए ।
2. प्यासा पंछी
आए पावस जो
रस बूंद लिए
चातक को मिला
जीवन दान
जीने के लिए
कोयल के
मधुर गान
कण-कण में
संचार लिए
दूब हँसे,
फूल खिले
प्यासे पंछी को
नीर मिले
उड़ता फिरे
जाने कहाँ
सताये पीड़ा
अंतर्मन की
शाखों से टूटे,
पीले पत्ते
वैसा ही है हाल मेरा
टूटी अभिलाषा,
घोर निराशा
सपना बिखरा,
दीपक बुझे ।
नवगीत
अंदर भरे हैं हलाहल
अवसादों के पार हुई ।
अश्रु आचमन करते रहते
अंतर्मन तार तार हुई ।।
तन मन एक नदी जैसे
उतर रही धीरे धीरे धीरे
प्राण बसती धमनियों में
डूब रही तीरे तीरे
फूल बन गए सख्त पत्थर
मानवता की हार हुई ।
दिवस आये हैं कराहते
कलप रहा देखो तन मन
याद आये अब न कोई
जल रहे जैसे भू अगन
सुख दुख अब आँखमिचौली
बीते दिन अब चार हुई ।
पैरों की पायल चुप है
जंजीरें बोल रही है
जीवन का भरोसा पाकर
बंद द्वार अब खोल रही है
खिले जो मुस्कान अधर पर
स्वप्न सभी साकार हुई ।
अंदर भरे•••
अवसादों के•••••
अनिता मंदिलवार सपना
4.नवगीत
अश्रु बन भावनाएँ टूटे
शब्द करे दावा
उर पीड़ा बाहर फूटे
बहती बन लावा ।
शब्द कैसे हों खामोश
ह्रदय अनुभूतियाँ भर कर
शताब्दियों के प्रवाह से
जीवन धारा से लड़कर
अस्थियाँ भी देह से छूटे
संसार छलावा
उर पीड़ा बाहर फूटे
बहती बन लावा ।
खुशियों का मेला लगता
उसे हम कभी कह न सके
दुख की बस सौगात मिली
उसे हम यहाँ सह न सके
समय यहाँ हाथ से छूटे
क्यों अब पछतावा
उर पीड़ा बाहर फूटे
बहती बन लावा ।
शब्द पत्थर पर बह घिसे
देखो लहू गीत गाते हैं
याद रहा निर्मोही पल
होंठ सिल जहाँ जातें हैं
सत्य यही बाकी सब झूठे
क्यों यहाँ दिखावा
उर पीड़ा बाहर फूटे
बहती बन लावा ।
क्षितिज भी शून्य देख रहा
अंबर तिमिर वरण सा है
संसार का ऐसा कोना
अब तक नहीं किरण सा है
मरीचिका बन "सपना" टूटे
रिश्तों का धावा
उर की पीड़ा बाहर फूटे
बहती बन लावा ।
5. मीत मेरे बन जाते तुम तो
गीत मेरी तब पूरी होती ।
सागर सी गहरी प्रीति यहाँ
तेरे प्रीति में गाती रहूँ
यादें तेरी लिपट बेल सी
नवगीत मैं भी पाती रहूँ
गीत मेरे सुन पाते तुम जो
प्रीत मेरी तब पूरी होती ।
आज कितना विवश हूँ मैं
पंख मिलते जो उड़ती रहूँ
नैना मेरे जो सजल हुए
राहों पलकें बिछाती रहूँ
रीत सिखलाते प्रीतम तुम जो
जीत मेरी तब पूरी होती ।
अधरों पर जीवन का अमृत
एक तुम्हारा रूप नयन में
मिलते हार या जीत "सपना"
आप ही बस मेरे चयन में
मन के मीत नहीं मिलते तो
बिन तुम दिवस अधूरी होती ।
व्याख्याता (जीवविज्ञान)
अंबिकापुर सरगुजा छतीसगढ़
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