काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार शशि कुशवाहा लखनऊ

शशि कुशवाहा


पति-एड. एच.एस.मौर्या


पिता:-श्री आर.बी.कुशवाहा


माता:-श्रीमती निर्मला कुशवाहा


शिक्षा :-डबल एम ए (इतिहास,शिक्षाशास्त्र) बी एड 


निवास :-लखनऊ,उत्तर प्रदेश


सम्प्रति:-अध्यापिका ( बेसिक शिक्षा विभाग)


कार्यरत :- सीतापुर ,उत्तर प्रदेश


मो.न.-8115469686


ईमेल:- kushwahashashi1180@gmail.com


 


लेखन विधा -कविता,कहानी,लेख ,धारावाहिक कहानियां पसंद विषय( हॉरर और लव)


 


प्रकाशित रचनाएँ :-अदिति एक अनोखी प्रेम कहानी (उपन्यास)


साझा काव्य संकलन :-काव्य चेतना काव्य संग्रह,कालिका साझा काव्य संग्रह,रत्नावली साझा संग्रह


विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशन


 


 


सम्मान:-विभिन्न साहित्यिक समूहों और मंचों द्वारा सम्मान पत्र।


 


 


1- "आधुनिकता की आँधी"


 


आधुनिकता की इस चकाचौंध में,


शिष्टाचार के मायने बदलते रहे।


सभ्यता और संस्कृति को छोड़कर,


नैतिकता के पाठ को भूलते रहे।


 


अपनी कमी को छुपा कर,


दूसरो पर दोषारोपण करते रहे।


माँ बाप के दिए संस्कारो को,


आधुनिकता की चादर से ढकते रहे।


 


एक वक्त था बुजुर्गों के पाव छू,


आशीर्वाद लेने को धर्म समझते थे।


आज हाय हेल्लो के चक्कर में,


माँ बाप के दिए संस्कारो को भूलते रहे। 


 


संयुक्त परिवारों में रहकर,


सुख दुःख में साथ निभाते थे।


एकल परिवार की परंपरा में,


आज मूल्यों के मायने बदलते रहे।


 


अपनों की खुशियों में खुश होकर ,


उत्सव सा मिलकर मनाते थे।


आज ऊँचाई पर देख कर उन्हें ही


ईर्ष्या की अग्नि में जलाते रहे।


 


अभी भी वक्त हैं सुधरना होगा,


आधुनिकता की आंधी से बचना होगा।


रिश्तों के सच्चे मायने को समझ कर ,


अपनों को अपनेपन का एहसास कराना होगा।


 


 


 


2 -           "चल मुसाफिर चल"


 


चल मुसाफिर चल,आगे को बढ़ता चल।


मेहनत कर धूप में पसीना बहाता चल।


 


ना थकना हैं और ना रुकना हैं  ,


मंजिल तक पहुँचने को हवा संग बहता चल।


 


राहें हैं लंबी और कठिन डगर हैं ,


भूले भटके जो भी मिले रास्ता दिखाता चल।


 


कदम जो लड़खड़ाये, हौले से संभालना,


विश्वास का दामन थाम आगे को बढ़ता चल।


 


कभी जो फंस जाओ लहरों के भवँर में,


नाम ईश्वर का ले हर बाधा को पार करता चल।


 


हर कदम पर मिलेंगी नयी चुनौतियाँ,


रब का नाम ले हर परीक्षा को पास करता चल।


 


चल मुसाफिर चल,आगे को बढ़ता चल।


मेहनत कर धूप में पसीना बहाता चल।


 


शशि कुशवाहा


लखनऊ,उत्तर प्रदेश


 


 


3 - "  भगवान परशुराम"


 


बैशाख माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया हैं बड़ी महान,


6वें अवतार के रूप में धरती पर आये करुणानिधान।


 


पिता जमदग्नि और माता रेणुका के थे पांचवे संतान,


विष्णु जी अवतरित हुए ले अवतार परशुराम भगवान।


 


जन्मे थे ब्राम्हण कुल में युद्ध कौशल में थे वो महान ,


अस्त्र शस्त्र के ज्ञाता और वीरता थी उनकी पहचान ।


 


माता पिता से प्रेम की अदभुत गाथा हैं महान ,


आज्ञा पाकर पिता की ली झटके में माता की जान।


 


ख़ुश ही जमदग्नि ने मांगने को कहा जब वरदान,


चतुराई और विवेक से मांग लिए माँ संग भाइयों के प्राण ।


 


हो गया था शक्ति पर अपनी जब उनको मान,


तोड़ धनुष शिव जी का राम ने चूर किया अभिमान।


 


त्रेता और द्वापर युग में भूमिका निभायी महान ,


अजर अमर हो गए तबसे परशुराम भगवान ।


 


उनके जैसा ना कोई हुआ शक्तिशाली भगवान,


कर्मो से रच गये इतिहास में एक अलग पहचान।


 


शशि कुशवाहा


लखनऊ,उत्तर प्रदेश


 


4 -


 


 


 


  "आओ मिलकर दीप जलाए"


 


फ़ैल रहा हैं विकट अँधियारा ,


मचा हुआ हैं हाहाकार ।


उम्मीद की किरण फैलाये,


आओ मिलकर दीप जलाए।


 


एक दिया किसानों के नाम का,


दे अन्न जिसने जीवन हैं दिया ।


सर्दी ,गर्मी और बारिश में भी,


मुस्कुराकर कर्तव्य का पालन किया।


 


एक दिया गुरुजनों के नाम,


दे ज्ञान अज्ञानता को दूर किया।


प्रेम , सजा और समर्पण से,


सुन्दर भविष्य का निर्माण किया।


 


एक दिया महापुरुषों के नाम,


दे जीवन अपना देश के नाम किया।


अपना सब कुछ न्यौछावर कर ,


स्वतंत्रता का अधिकार दिया।


 


एक दिया शहीदों के नाम,


जिन्होंने घर परिवार सब त्याग दिया।


डटे रहे जो सरहद पर हरदम,


हर ख़ुशी को अपनी कुर्बान किया।


 


एक दिया समर्पित उनको,


कठिन समय में जिन्होंने साथ दिया।


अपनी चिंता और फ़िक्र छोड़ के,


बीमारों की सेवा में जीवन दान किया।


 


एक दिया अपने नाम का ,


जो बैर और वैमनस्य को मिटाए।


प्रेम , सहानुभूति और समर्पण ,


का चारों ओर प्रकाश फैलाये।


 


शशि कुशवाहा


लखनऊ,उत्तर प्रदेश 


 


5 -


आखिर क्यों ? 


 


जन्म तेरे धरा पर लेने पर, 


घर में उदासी सी छा जाती है ।


माँ को छोड़ कर हर ओठो पर


क्यों मनहूसियत सी छाने लगती है?


 


बेफिक्री से चलने पर 


घूर घूर के देखा जाता है ।


ताने कसने को रहता तैयार


क्यों बेशर्मी का तंज कसा जाता है?


 


अतीत की यादों से कभी


मन ख़ुशी से जब नाच जाता है ।


दो पल की ख़ुशी में देख के उसको


क्यों बेपरवाह का ताना लग जाता है ?


 


प्रेम भरे हृदय से जब  


प्रिय को आलिंगन कर जाती है।


इजहार कर समर्पण कर देती है,


क्यों निर्लज्ज उसे समझा जाता है ? 


 


कभी तो अपनी मर्जी से 


सपने को पूरा करने आगे कदम बढ़ाती है।


स्वछंदता का आरोप लगा 


क्यों सारी गलतियाँ शीश पर मढ़ दी जाती है ?


 


घर बाहर दोनों करती है सामंजस्य 


जिम्मेदारियों से कभी नही पीछे हटती हैं।


ना रूकती , ना थकती , ना करती है आराम ,


ऐ औरत फिर भी क्यों गैरो में तौला जाता है ? 


 



 


 


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