काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार निशा"अतुल्य

निशा अतुल्य 


देहरादून उत्तराखण्ड


 


माँ शारदा को प्रणाम 


 


मैं निशा 


अतुल की अतुल्य निधि 


देवभूमि निवासिनी 


दो पुत्रों को संस्कार से कर पोषित 


समाज का ऋण उतारती ।


पढ़ी थी विज्ञान हमेशा 


पर कलम से अपने मनोभावों 


को दिल के पन्नो पर उतारती ।


एक अद्भुद जीवन जीती हूँ


हो सकता है जो मुझसे 


समाज के लिए निष्ठाऔर 


समर्पण से करती हूँ।


जो लगता ठीक मुझे 


उसे कसौटी पर उतारती 


ऐसे ही जीवन के 


उतार चढ़ाव पार करती 


जीवन सादगी से बिताती हूँ ।


लिखने का है शौक मुझे 


आशु मुक्त लिखती जाती हूँ                    


बस यही परिचय है मेरा 


जो आप के संग बांटती हूँ ।


 


 


निशा"अतुल्य"


देहरादून 


उत्तराखंड


 


 


1*वो क्यों मर गया*


          


सड़क पर चर्चा 


हुई सुना तुमने


वो मर गया 


अच्छा हुआ 


विषमताओ से तर गया


शरीर निश्छल पड़ा है सड़क पर


किसी से पाकर जन्म 


ऐसे क्यो अड़ गया 


कहां गया वो आँचल 


जिसके नीचे पला था


जिन कांधों पर चढ़ कर 


आसमान कभी छुआ था


क्यो हुआ दर बदर ये 


शरीर हुआ बेदम


शायद भूख प्यास 


या कुछ और 


डूबा अंधकार में 


हाँ लोग कर रहे हैं बाते 


नशेड़ी था 


ना खाता था न पीता


बस डूबा रहता 


अपनी ही दुनिया में


भूख ने नही मारा इसको


प्यास के लिए 


नल भी लगे है जहां तहां 


मर गया डूब कर 


नशे के अंधेरों में 


मर गए थे एक दिन 


मात पिता रो रो कर


नही निकला वो उस अंधेरे से 


जिसने निगल लिया था 


उजालों को किसी पुत्र के


नशा क्योंकर रहा बढ़


निगल रहा जवानियों को


कर बूढ़ा समय से पहले 


दे रहा लील जिन्दगानियो को


आज लाल किसी का लावारिस


जल गया 


अच्छा हुआ वो मर गया


सभी विषमताओ से तर गया 


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


 


 


2 *बेबस*


 


देखी एक बेबस जिंदगी फुटपाथ पर 


बूढ़ी खोई आंखे झुकी झुकी


निर्विकार सोचती न जाने क्या 


पास रखे कटोरे में डालता जब कोई उम्मीद की किरण 


पेट भरने की उठ जाती उमंग 


सुनो 


सुनो क्या बहुत भूख लगी है 


उसकी सुनी आंखों में चमक आई


बोली कुछ नही बस उम्मीद में सिर हिलाई


आओ आओ मेरे साथ मैं बोली 


उसकी टूटी लाठी उठा 


उसने की उठने की कोशिश


थोड़ा लड़खड़ाई 


हाथ जमीन पर टिकाई 


मैंने पकड़ा उसे सहजता से उठाया और ले आई घर अपने


बैठी वो बागीचे में नीचे ही 


बहुत कहा माइ कुर्सी है 


हाथ से मना किया उसने 


दी खाने की थाली उसे


आखों में भर आंसू देखा उसने


भूखी आत्मा बिखर गई 


खाने पर टूट गई 


मैं निशब्द उसे देखती रही


वो हुई तृप्त 


मैंने पूछा माइ घर कहां है


बड़े भेद से मुस्काई 


बोली तीन बेटे है


जिगर के टुकड़े हैं


पता उनका मेरे पल्लू में बंधा है 


खून अपना पिला कर पाला था जिन्हें 


आज वो ही मेरे बुढापे पे शर्मिंदा हैं


बड़े साहब है ,संतरी खड़ा द्वार है 


नही पहचानते वो मुझे 


संतरी ने बताया 


ये साहब का फरमान है।


मैं भौचक्की खड़ी रह गई


अंतरात्मा टूट के बिखर गई


सुन *फैसला* अपने बेटों का


मैं तो उसी दिन मर गई 


अब तो ये सड़ी लाश है 


उन बेशर्मो की जो फुटपाथों पर जिंदा पड़ी है 


शायद चिरनिंद्रा में लीन होने पर 


कोई तुमसा बिटीया दे सदगति मुझे 


इसी लिए बीच चौराहों पर बुझी हुई लौ पड़ी है ।


दिखाऊँ फैसला बेटों का दुनिया को इसी बात पे जान मेरी अड़ी है 


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


 


3*श्री राम*


 


नीलवर्ण पीताम्बर धारी


सौम्य ओज सी सूरत तिहारी


संग में लक्ष्मण सा भ्राता


वाम अंग सीता है प्यारी 


 


तेज और बल धारी तुम हो


कांधे तुमरे तरकश साजे 


हाथों में है धनुष विराजे


साथ हनुमंत भक्त है प्यारे ।


 


नाम तुम्हारा निशदिन जो ध्याय


भव बंधन सब फिर कट जाए 


भक्ति माँगू तुमसे मैं प्रभुवर


दे दो मुझको भक्ति का वर ।


 


मात पिता की आज्ञा सुनकर


चौदह वर्ष वनवास गुजारे


बड़े भयंकर राक्षक मारे 


अंत काल रावण स्वर्ग सिधारे ।


 


रख चरण पादुका सिंघासन 


भरत भाई जो राज्य सम्भाले


लक्ष्मण साथ रहे वन में भी 


हर संकट में साथ निभाते ।


 


अंत समय भी नाम तुम्हारा


जो जिव्वाह से रहे पुकारे 


तुम उनको बैकुंठ बुलाते 


अब प्रभु आप मुझे भी तारे ।


 


 


 


निशा"अतुल्य


 


 


 


    4 मुस्कान


 


 


आशियाना महक उठा एक भीनी सी खुशबू से 


आँगन मेरा चहक उठा मीठे मीठे बैनो से 


नन्हे नन्हे पाँव धरा पर रख कर डग मग करती है


दिल हुआ प्रफुल्लित मेरा उसके चेहरे की हंसी से ।


 


नन्ही नन्ही आँखिया खोले, बड़े बड़े से सपने हैं


नन्हे नन्हे पाँव है उसके ,बड़ी बड़ी सी मंजिल है 


उत्साह उसका बहुत बड़ा है, गिरती और संभलती है


पहुंचूंगी मंजिल पर अपनी, ऐसी हठी लगती है।


 


महका मेरा तन मन उससे घर मेरा गुलजार हुआ


तितली सी उड़ती उपवन में भवरों का गुंजार हुआ


कोयल जैसी मीठी वाणी सुनकर मन मेरा मल्हार हुआ 


मेरी प्यारी गुड़िया रानी से घर मेरा आफताब हुआ।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


 


 


5उन्वान एहसास


 


 


नही हुआ था एहसास 


तेरी मोहब्बत का मुझे


ना काबिल समझ खुद को


इनकार किया था मैंने तुझे ।


अब समझी हूँ 


तेरे प्यार की गहराई को


जब तेजाब में नहला दिया तूने मुझे।


अब इन सुकड़ी हुई आँखों से 


साफ बहुत दिखता है मुझे


आ बैठ मेरे पास ले के 


हाथों में हाथ मेरे।


तेरी चाहत की शिद्दत 


अब महसूस हो रही है मुझे


कर माफ मेरी नादानियों को


जो कि थी मैंने अनजाने में।


आ बैठ मेरे पास 


चूम ले लब तू मेरे


मैं हूँ अब तैयार ताउम्र 


साथ निभाने को तेरे।


जबसे तेरे प्यार का खजाना पाया मैंने


तू मुड़ा ही नही अब तक देखने को मुझे


एहसास बहुत है 


मेरे दिल को मौब्बत का तेरे


आ बक्श दें ये गुनाह तू मेरे 


चल साथ चलूंगी मैं कुफ़र तक तेरे


आ पकड़ हाथ अब तू आके मेरे ।


है एहसास मुझे तेरी मौहब्बत का बहुत 


तू भी कर महसूस अब दिल को मेरे 


बसायेंगे नई दुनिया मिल कर हम तुम


जहां मेरी सूरत देगी गवाही प्रेम का तेरे। 


 


स्वरचित


"


 


 


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