डॉ रघुनंदन प्रसाद दीक्षित 'प्रखर"
माता= श्रीमती शांति देवी
पिता= श्री दाताराम दीक्षित
जन्म= 05 जून 1962
विधा= कविता,कहानी, लघुकथा, गीत नवगीत तथा समसामायिक आलेख।
प्रसारण= आकाशवाणी एवं जैन टीवी चैनल से काव्य पाठ, भेंटवार्ता तथा सामायिकी का प्रसारण।
प्रकाशन = स्तरीय राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में सतत प्रकाशन।
कृतीत्व= वक्त के कैनवस पर....(क्षणिका),एवं मन के द्वार (नवगीत)
एवं सीमा से आंगन तक(सैन्य गीत),राहें, अंतिम आग (अप्रकाश्य)
सम्मान= विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर(विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ भागलपुर (बिहार)सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
व्यवसाय=
*(क) 30 वर्षों तक सैन्य सेवा में सूबेदार मेजर पद से सेवानिवृति उपरांत स्वतंत्र साहित्य सृजन।*
*(ख) कारगिल युद्ध विभीषिका के समय उत्तर सीमा पर सक्रिय सैन्य दायित्व को साथ ही पूर्वोत्तर सीमा पर तैनाती में कर्तव्य निर्वाहन।*
सम्पर्क= 27, शांतिदाता सदन, नेकपुर चौरासी, फतेहगढ , जनपद- फर्रूखाबाद(उ0प्र0)209601
Email : Prakhard68@gmail.com
Mob= 09044393981
*रचनाऐं*
*(१)*
कुंडलिया
बीत रहा मधुमास पल कुंद हुई मन प्रीति।
प्रणयन की गहराईयाँ कहाँ निभाती रीति।।
कहाँ निभाती रीति चहूँ दिशि उपवन महके।
हा!देख काम के रंग जवानी पलपल बहके।।
मनभावन शुचि पावन हैं प्रखर प्रेम के गीत।
अस्ताचल की ओर जवानी कोरी जाए बीत।।
*(२)*
दोहरे चेहरों की दोधारी से बचिए।
मीत अकविता की बेजारी से बचिए।।
जुमलों में ग़ज़ल परोसते उस्ताद
उनकी हेकडी औ' मक्कारी से बचिए।।
सौदेबाजी में कराहता मंचों पे अदब
ऐसी शातिर दुकानदारी से बचिए।।
न कविता न कविता का हुनर पाया
मीत तौबा इस कलाकारी से बचिए।।
ये चारण भक्ति और ये यशगान
प्रखर मंचों की पर्देदारी से बचिए।।
*(३)*
*भूख*
जठराग्नि प्रबल जठ पूर्ति निबल, किम जतन करें जीवन सरसै।
युति युक्ति अबल घनघस छल बल, विपदा की जेठ ज्वाल बरसै।।
जीवन पथ वक्र अगम दुर्गम, सुख स्वाति ऩखत की बूँद सदृश,
किम चलै स्यंदन गृहस्थ प्रभू, मृगतृष्णा जस आशा तरसै।।
हे नाथ दयानिधि करुणाकर, दो श्वांस उधारी ही तुम्हरी।
जीवन कल सम अनवरत चलै, दिन रात खटूँ इच्छा तुम्हरी।।
ये भूख बनाए परदेशी यह भूख करे उत्थान पतन,
मेहनत की रोटी प्रखर मिले,रहे कृपा प्रभु जी जब तुम्हरी।।
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जतन= यत्न
कल= यंत्र
स्यंदन=रथ
*(४)*
अजब तासीर
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बताऐं क्या तुम्हें प्रियवर, आहों में कसक पीड़ा ।
बड़ी बेदर्द सुकूं लेती, निभाती साथ विरह पीड़ा।।
तुम्हें हालात क्या मालूम, नहीं आराम निंदिया ही,
गिनगिन कर करें रातें, अजब तासीर पिय पीड़ा।।
न दिखा पाऐं न बता सकते, दर्द ए दिल को अफसाने।
इन ख्वाबों में तुम्हीं तो हो, शमा में जलते परवाने।।
सुकूं दिन सा रात नींदें, उड़ाती याद पिया रह रह,
तुलसिका गेह मुरझानी , प्रखर मन कैसे समझाने ।।
*(५)*
रस वसंत मूर्ति
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मैं सुभग हूँ प्राणबल्लभ , सर्वस्व अर्पित तन मन धन।
कर दो अमोल हस्ताक्षर प्रिय , सम्पूर्ण होगा तब प्रणयन।।
मदिर नयन की पलक मुंदी, संस्पर्शी भाव रुचिर पावन,
मैं जीत गयी न तुम हारे ,हिय कसक रहा प्रियतम खनखन।।
अरुणाई तुम्हारी चित्त हरण,पतवार नयन बाकी चितवन।
अलसायी भोर सी स्निग्ध आभ, काकुल गुम्फित ज्यों पावस घन।।
नूपुर झंकृत पैंजनि रुनझुन , कंगन खनकै अधरन स्मित,
अल्हादिनी संगिनि प्रणय छंद, साधिका सृजनिका वातायन ।।
डॉ प्रखर दीक्षित
फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश)
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