मदन मोहन शर्मा 'सजल' - कोटा

आज पर्यावरण दिवस पर -


*"प्रकृति की दास्तां अपनी जुबानी"*


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बियावान कंकरीट जंगल


चारों ओर 


धुंआ ही धुंआ


साँस लेने में फेफड़ों को


मशक्कत करनी


पड़ रही थी


आसमान से अग्नि


बरस रही थी


कहीं कोई ठौर नहीं


न छाया का नामोनिशान,


प्यास के मारे


कंठ में कांटे चुभते


महसूस हो रहे थे,


ऐसा लग रहा था


प्राण अब निकलने ही वाले है,


दूर-दूर तक


न कोई पक्षी, न जानवर


न आदमी का ही


नामोनिशान।


 


हे ईश्वर 


अब क्या होगा, कैसे बचेगी जान?


निढाल होने ही जा रहा था


अचानक


एक बूढ़ी औरत


कृषकाय बदन


सारे शरीर पर फफोले


आंखे धंसी हुई


जीर्ण शीर्ण काया पर


जगह-जगह फ़टी हुई


सैंकड़ो पैबंद लगी साड़ी


जिससे अपनी लाज को


छुपाने में


भरसक प्रयासरत


होटों पर जमी पपडियां


कई-कई दिनों से


भूख प्यास से लड़ने का


आभास दे रही थी।


 


मैंने पूछा -


माता, तुम कौन हो?


किसने की तुम्हारी यह


दुर्दशा?


कौन है वह वहशी दरिंदा?


शून्य में अपलक निहारती


हुई अटक अटक कर


बोली-


क्या बताऊँ बेटा


*मैं प्रकृति हूँ*


मैंने अपना सब कुछ


प्राणी जगत को


सर्वस्व दिया,


मैंने अपना सारा खजाना


प्राणी जगत के लिये


खोल दिया,


और बदले में मानव ने मुझे यह सब दिया।


 


मुझे नोंचा, खसौटा,


मेरा दोहन किया,


मेरी हरियाली को 


वीरान जंगलों में बदल दिया,


मेरे वक्ष पर शोर करते


नाचते, फुदकते, दौड़ते,


किलकारियां करते,


चौकड़ियाँ भरते मेरी संतानों


जीव जंतुओं


पशु पक्षियों को आज का मानव


मार कर खा गया,


मेरी इस हालत का जिम्मेदार


सिर्फ और सिर्फ मानव है,


लेकिन उसे नही पता


कि उसकी जिंदगी


मेरे ही दम पर है,


मेरे ही दम पर है।


★★★★★★★★★★★★


मदन मोहन शर्मा 'सजल' - कोटा (राजस्थान)


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