निशा"अतुल्य"

धीरे धीरे 


3.6.2020


 


जब भी कुछ कहती हूँ


लगता है तुम सुनते तो हो


पर शायद समझते नही


या समझना नही चाहते ।


मेरी उलझनों को देखते भी नही


समझने की करूँ क्या उम्मीद


कान धरते भी नही 


पर अकस्मात आता है ख़्याल


जिंदगी की झंझावत को 


बाहर तुम ही तो झेलते हो


ये सोच कर मैं चुप हो जाती हूँ


धीरे धीरे तुम्हे कुछ न कहने का मन बनाती हूँ ।


सच में घर को संभालना,


रिश्तों को सहेजना 


मान मुनव्वल में, 


स्वयं को भूल जाती हूँ ।


फिर तुमसे क्या शिक़ायत


तुम तो बाहर की जद्दोजहद 


झेल कर आते हो ।


धीरे धीरे मैं निस्तेज होती जाती हूँ,


तुम्हारे चेहरे पर खींची रेखाओं को देख समझ जाती हूँ,


चाहती हूं, पौंछ दूँ अपने आँचल से उन्हें,


पौंछ भी देती हूँ उन्हें, जब भी जान पाती हूँ


तुम भी शायद ऐसे ही निःशब्द 


चुपचाप, मेरी उलझनों को निरखते हो


इसी लिए मन की बात 


मन में ही रखते हो।


अचानक से बन निर्मल नदी बह निकलते हो ।


कुछ मन की बातें आँखों से कहते हो 


प्रेम का अनकहा सागर,जो लगता है सूख रहा था


धीरे धीरे परिवार रूपी सागर में ख़ुद को समाते हो 


और ऐसे ही एक दूसरे को समझते नासमझ हम 


धीरे धीरे अपने जीवन के पड़ाव पार करते हम


तन्हा दोनों जीवन में रह जाते हैं


अपना जीवन जहाँ से किया था शुरू, वहीं पहुँच जाते हैं।


धीरे धीरे बने धीर-गम्भीर हम दोनों 


ले हाथों में हाथ सुनहरे सपनो में खो जाते हैं ।


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


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