निशा"अतुल्य"

*मैं धरा*


10.6.2020


 


मैं तप्त देह मौन धरा 


तुम उद्दंड मानव


दोहन तुम्हारा 


अब मुझे खला ।


 


मैं माँ करती पोषण


विपदा में तेरा


तू करता अतिक्रमण


स्व स्वार्थ के लिए मेरा।


 


कितना चाहिए तुझे


स्व निज के लिए


निस्वार्थ हो मानव


बता जरा ।


 


उठ मैं से ऊपर


कर निर्माण वसुदेवकुटुम्भकम का


पर हित तारेगा फिर 


जीवन तेरा।


 


मैं हूँ सशक्त 


मत समझना निर्बल मुझे


जरा सी मेरी करवट से 


मानव तेरा जीवन डरा।


 


ये है धैर्य माँ का


करती पोषण जो बच्चों का


अपनी ही रक्त मज्जा से


स्व को मिटा ।


 


समझ, कर संरक्षण


पर्यावरण का


होगी शुद्ध वायु,जल


हरी भरी धरा ।


 


फिर न होगा कोई 


भूकम्प,तूफान,जलजला 


मैं सृष्टि माँ, पोषित करती


अपने जीवों को सदा।


 


सुखी मेरी आत्मा


देख घनेरे बादल 


समय पर यहाँ


तृप्त मेरी आत्मा 


रहती फिर सदा।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


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