प्रखर दीक्षित फर्रुखाबाद

सब कुछ अब भी खत्म नहीं है 


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लगा रहे तुम दोष वृथा क्यों कालचक्र गतिमान निरंतर 


सोचो ज़रा स्वयं में झांको , सब कुछ अब भी खत्म नहीं है ।।


 


ठहरे मन को कभी झकोरो, कभी नवल परिदृश्य बदलना ।


कभी सहज शब्दों सा वाचन, कभी मौन आंगन में संभलना।।


अंर्तमुखी स्वयं को जानो, जीवन मादस बज्म नहीं है।


सोचो ज़रा स्वयं में झांको , सब कुछ .........


 


रे मन नीरस जीवन जीकर, मिला तुझे क्या मुझे बता दे।


यूँ तो भव नें ताप घनेरे, रंचमात्र पुरुषार्थ जता दे।।


छोड़ उलाहने बहुत दे लिए, यह कुतर्क तुम्हारे हज्म नहीं हैं।।


सोचो ज़रा स्वयं में झांको , सब कुछ .........


 


स्वयं गढ़े अपनी तारीख़ें, खनो कूप खुद पंथ संवारो।


पृथक पृथक निज सोच सभी की, प्रखर कभी न साहस हारो।।


कलि नें केवल कर्म उच्चतर, इससे उत्तम रत्न नहीं है। ।


सोचो ज़रा स्वयं में झांको , सब कुछ .........


 


प्रखर दीक्षित


फर्रुखाबाद


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