राजेंद्र रायपुरी

*मजदूर*


 


वो मजदूर,


जो प्रगति के रथ का पहिया है,


था कितना मजबूर,


आड़े वक्त में,


देखा है, 


हम सब ने।


 


था कोई नहीं सहारा,


फिरता था मारा-मार,


कभी घर जाने को,


कभी दो दाने को।


 


दावे तो खूब हुए,


दिया हमने सहारा।


पर वो जानता है बेचारा,


जिसे कहते हैं,


हम मजदूर,


था कितना वो,


मजबूर,


अपने ही देश में,


अपनों के बीच।


 


फिरता था वो,


मारा-मारा।


कोई तो बने सहारा।


पर हुआ सब बेकार।


कर प्रयत्न,


गया वो हार,


क्योंकि,


था वो मजदूर।


 


     ।। राजेंद्र रायपुरी।।


कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...