मेरी एक अभिलाषा
देखती हूं जब उन नादान बच्चो को
तो दर्द भरे दिल से आह निकल आती
काश मैं पूरे कर पॉउ उनके सपने
मन ही मन यही मैं सोच के अकुलाती
खेलने और खाने की उम्र जब है इनकी
कंधों पर अपने वो भार उठाते है
धूप में वो चलते बिना जूते के पैरों से
इस कदर उनके नन्हे पैर है जल जाते
सोचती हूं कि ये बस्ते का भार उठाये
पर उनके मा बाप बेबसी से बोझ उठवाते
चाहू मै हर पल उन्हें खाना भी ख़िलावू
उनके पास बैठ के ढ़ेर सा बतियावू
उनके सुख उनके दर्द उनका साया बनू
उनके सारे कष्टो को मैं खुद से हरू
समझे वो बात मेरी मैं उनको समझावू
उनको आगे बढ़ाने का जुनून दिल मे लावू
मैं उनके संघर्षो का इम्तेहान बन जाती
दर्द भरे दिल से यह आह निकल आती
वो जब कभी मागे माँ से पकवान कपडे
सुन कर मा उनकी सजदे में रो देती है
चुप कराती उनको और मीत मै बन जाती
खुशी होती गर मै उनके काम कभी आती
स्वरचित ऋचा मिश्रा “रोली”
श्रावस्ती बलरामपुर
उत्तर प्रदेश
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