घनघोर श्यामल ये घटा
नभ में अलौकिक छा गई।
रिमझिम गिरी बूंदे धरा,
ऋतु वृष्टि की है आ गई।
घन बीच चमके दामिनी,
वन में शिखावल नृत्य है।
तरु झूमती है डालियां,
वसुधा मनोरम दृश्य है।
झींगुर, पपीहा, मोर, दादुर,
ध्वनि हृदय हर्षा गई।
रिमझिम गिरी बूंदे धरा,
ऋतु वृष्टि की है आ गई।
कल कल करें पोखर नदी,
सनसन चले शीतल पवन।
गिरती सुधा रसधार बुझती
तप्त अवनी की अगन।
सुरभित धरा खिल खिल उठी
हर पीर मन बिसरा गई।
रिमझिम गिरी बूंदे धरा,
ऋतु वृष्टि की है आ गई।
तन को भिगोती बूंद ये,
मन भाव की सरिता बहे।
विरहन नयन में नीर हो,
कविमन सरस कविता कहे।
धानी चुनर ओढ़े धरा
सबके हृदय को भा गई।
रिमझिम गिरी बूंदे धरा
ऋतु वृष्टि की है आ गई।
सीमा शुक्ला अयोध्या।
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