बचपन -
चढ्ढी पे गंजी एक पैर चप्पलें नहीं।
धूप लू बयार हो कुछ भी खलें नहीं।
बालू में जलें पैर तो उपचार था गजब।
दौड़ो, खड़े हो घास पर तो पग जलें नहीं।।
सुनकर कड़क नगाड़े की घर से निकल गए।
नौटंकी देखने को हो के बेअकल गए।
अाया मजा तो रात बैठ देखते रहे।
लौटे तो डर से देह के कलपुर्जे हिल गए।।
सोंचा ये दांँव पेंच गाय खोल चल पड़े।
उसको चराने घात लगा कर निकल पड़े।
गाय पड़ी खेत में हम नींद में गाफिल।
मारे पिताजी लात मेंड से फिसल पड़े।।
गेहूंँ कभी नसीब जाग जाए खाइए।
जौ सात माह डाल पेट में पचाइए।
बाकी तो श्यामरंग की बजड़ी बहार थी।
रोटी से ऊब भात या खिचड़ी बनाइए।।
आए कोई मेहमान तो मिलती थी मिठाई।
वरना तो रोज होती थी गुड़ की ही खवाई।
भेली से बड़ा प्यार था थी जानेमन वही।
मांँगे नहीं मिलती थी तो जाती थी चुराई।।
घर में था अन्धकार छोंड़ि हाथ डाल के।
हम हो गए मगन बड़ी भेेली निकाल के।
मालुम नहीं था झाड़ू वहीं माँ लगा रही।
खांँसी तो भाग हम चले भेली उछाल के।।
स्कूल में पढ़ाई कम थी मार अधिक थी।
सिर पे सरस्वती मेरे सवार अधिक थी।
संस्कृत के शब्दरूप में जरा सी गड़बड़ी।
तो चार छड़ी एक साथ धार अधिक थी।।
चारे को बाल खेत का भी काम किए हैं।
सोकर उठे तो खेत में विश्राम किए हैं।
आए नहाए खाए फिर स्कूल पहुंँचकर।
गुरुवर इनाम छड़ी से तमाम दिए हैं।।
घर आने पर ट्यूशन की क्लास लेते पिता जी।
खुद लेटते पैताने जगह देते पिता जी।
पूछे जो उसमें एक का जवाब न दिया।
तो जोड़ा लात तान हचक देते पिताजी।।
पुरखे मनुज के कीस थे साबित गलत हुआ।
थे डार्विन खबीस तो साबित गलत हुआ।
हमको दुलत्तियों से यही ज्ञान मिला है।
शायद गधे थे कपि थे ये साबित गलत हुआ।
बचपन जो गया बीत अगर लौट आयेगा।
फिर से पढ़ो लिखो यही पैग़ाम लाएगा।
पर जो चलाते थे पिताजी लात औ जूते।
उसको बताओ अा के किसका बाप खाएगा।।
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