सुनीता पाठक

मेरे ख्वाबों में अक्सर ही, उसका लगता डेरा है।


मेरा ना होकर जाने क्यों, फिर भी लगता मेरा है।।


छुपा हुआ है दिल में या तो, आसपास ही लगता है,


 नजर नहीं आता है छुप-छुप, वह ठग मुझको ठगता है,


 मैं महसूस उसे करती हूं,हर पल इन्हीं हवाओं में,


मैं जगती हूं उसकी खातिर, शायद वह भी जगता है,


उसकी यादों ने चौतरफा, हर पल मुझको घेरा है।


मेरा ना होकर जाने क्यों, फिर भी लगता मेरा है।।


नैनों के रास्ते से होकर ,मेरे दिल में उतर गया,


खुशबू बनकर आसपास वो,जैसे मेरे बिखर गया


बाहों में भर लेती हूं मैं, हर पल उसे खयालों में,


सोच सोच कर मेरा चेहरा, कुंदन जैसा निखर गया,


 इक पल भी उसको भूलूँ तो, दिन भी लगे अंधेरा है।


मेरा ना होकर जाने क्यों, फिर भी लगता मेरा है।। 


अपनों से भी बढ़कर के वो, लगता है मुझको अपना,


सच से भी ज्यादा मुझको, भाता है यह उसका सपना,


हर दिन हर पल झुलसाती हूँ,मैं अपने इस तन मन को,


उसकी यादों की भट्टी में ,अच्छा लगता है तपना,


अपनी आभा को अपना लो,अब भी बहुत सवेरा है ।


मेरा ना होकर जाने क्यों, फिर भी लगता मेरा है।।


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