*"मातु-महान"* (दोहे)
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^स्नेह सिक्त पीयूष को, मातु-पिला संतान।
अर्पित कर निज रक्त को, देती जीवन दान।।१।।
^पावन पय पीयूष पी, सुख सरसित संतान।
हुलसित माता अंक में, धन्य मातु-अवदान।।२।।
^उपजे पीकर क्षीर को, शिशु के मानस-मोद।
माता मन ममता महत, स्वर्गिक सुख माँ-गोद।।३।।
^मातु सकल ब्रह्मांड है, सरस-सुधा-संसार।
जीव-जगत जनु जान-जन, ममता-अपरंपार।।४।।
^अमिय-कलश है मातु-वपु, मानस ममता-मूल।
पान अमिय माँ का करे, सकल मिटे शिशु-शूल।।५।।
^होकर अति कृशगात माँ, श्रम साधित मन-क्लांत।
पान करा फिर भी अमिय, करे क्षुधा-शिशु शांत।।६।।
^मातु-सुधा-सद्भाव से, सरसे सुख-संसार।
प्रेम पले पीयूषपन, पातकपन-परिहार।।७।।
^स्नेह सजीवन सार शुचि, सरसित सुधा समान।
बोली माँ के नेह की, फूँके जग-जन-जान।।८।।
^माँ देती संतान को, ममता की सौगात।
अमिय-सरिस माँ-दूध पी, बढ़ता शिशु-नवजात।।९।।
^माता जीवन दायिनी, अमिय कराती पान।
शिशु का संबल है वही, जग में मातु-महान।।१०।।
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भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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