मेरे कितने ही रुप मेरे कितने ही रंग
सुबह से शाम तक करती हूं मैं काम
एकपल भी नहीं करती आराम
अपनों का रखती हूं हरदम ख्याल
भूलकर अपना ही होश और हाल
मजबूत जिसकी डोर ऐसी मैं पतंग
मेरे कितने ही रुप मेरे कितने ही रंग
कितनी ही भूमिकाएँ मैंने अदा की
माँ, पत्नी, बहन, बेटी
पर मेरी जरूरत इतनी ही क्या
बनाऊ मैं बस दो वक्त की रोटी
कब मिलेगी मुझे आजादी मेरे जीने का ढंग
मेरे कितने ही रुप मेरे कितने ही रंग
जीजाबाई का मातृत्व मुझमे लक्ष्मी सी आग
राधा का समर्पण मुझमे सीता सा त्याग
गंगा की पवित्रता मुझमे दुर्गा सा शौर्य
उर्वशी की चंचलता मुझमे धरती सा धैर्य
समुंदर भी सहम जाए ऐसी मैं तरंग
मेरे कितने ही रुप मेरे कितने ही रंग
स्वरचित
वैष्णवी पारसे
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें