देता रहा जो छाँव उम्र सारी ।
सहता रहा जो धूप खुद सारी ।
वो अपनी साँझ के झुरमुट में सुस्ता रहा है ।
वो देखो फिर भी कितना मुस्कुरा रहा है ।
बांटकर जीवन जीवन थमता जा रहा है ।
नियति के आँचल में प्यासा ही जा रहा है ।
पीकर दर्द के आँसू पिता मुस्कुरा रहा है ।
आज फिर समय समय को दोहरा रहा है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
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