बढ़ गयी है पीर ऐसी
जख़्म सारे दिख रहे
पाप हो या पुण्य हो
हम सभी तो पीस रहे।
कौन कहता है तूँ बच गया,
देखने में एक-दूसरे के मजे हैं सध गया।
आज मानव स्वयं जिंदा लाश हो
टूट कर सभी अभिलाषाएं गिर रहे
आंधियों के तेज ध्वनि से
अब दीप जीवन के बुझ रहे।
रात क्या और दिन क्या सब एक हैं,
बाग मुर्गे की भोर में नहीं लालिमा में लग रहे।
देख दया नयनों का ओट लिए
अंश्रू अवसाद में छलक रहे
चारों ओर फैले हलाहल को पी
सत्य शिव को समर्पित कर रहे।
सोचता हूँ यदि स्वप्न सारे सुख दे गये,
चीख कर क्या हुआ टूट कर बिखर गये।
*रचना - दयानन्द त्रिपाठी"दया"*
लक्ष्मीपुर, महराजगंज, उत्तर प्रदेश।
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