यादों के साये
उमड़ते -घुमडते बादलों के बीच
टपकती बूंदों से सुमधुर बनते हैं गीत
पक्षियों का सुनाई देता कर्णप्रिय संगीत
सावन की घटा में याद आती है पुरानी रीत
सबका आंगन में मिलकर सेवइयां बनाना
थकान हो अगर तो चाय का प्याला थमाना
ना कोई शिकायत ना शिकवा किसी से
वह सावन के गीतों का मिल गुनगुनाना
वो झूलों की पीगें बड़ी याद आए
मोहल्ले की सब लड़कियां साथ गाएं
वो रिश्तो का जमघट कहीं छँट गया है
सावन या भादों का मंजर कहीं घट गया है
वो यादों के साए बनिए स्मृतियां हैं
नहीं अब वो आंगन नहीं रीतियां हैं
हैं खाली सी सड़कें सूनी वीथियां हैं
डॉ. निर्मला शर्मा
दौसा राजस्थान
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