*अष्टावक्र गीता*(दोहे )-5
प्रकृति परे मैं शांत हूँ, ज्ञान विशुद्ध स्वरूप।
रहा मोह संतप्त कह,विस्मित जनक अनूप।।
करूँ प्रकाशित विश्व को,और प्रकाशित देह।
मैं ही पूरा विश्व हूँ,कह नृप जनक विदेह।।
दर्शन हो परमात्मा,तज तन भौतिक देह।
बिना किए कौशल कभी,मिले न प्रभु का स्नेह।।
फेन-बुलबुला-लहर से,नहीं विलग है नीर।
वैसे ही यह आत्मा,व्याप्त विश्व रह थीर।।
धागा ही तो वस्त्र है,यदि हो गहन विचार।
ऐसे ही हम मान लें,ब्रह्म सकल संसार ।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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