त्याग-महात्म्य-2
तजि आलस कुरु बिनु फल-इच्छा।
सेवा-भाव त्याग कै सिच्छा ।।
आलस त्यागि करहि जे करमा।
निज गृह-काजु-दान-जगि-धरमा।।
लहहिं परम सुख अंतहिं काले।
अस जन प्रभु के भगत निराले।।
परम दयालु-सुहृद,प्रभु-प्रेमी।
करहिं श्रवन प्रभु-कथा सनेमी।।
अस जन त्यागी अहँ संसारा।
हरहिं अनाथ-कलेस अपारा।।
बंधु-बांधवहिं,स्त्री-नौकर।
सुत अरु सुता सबहिं कै होकर।।
एकहि भाव-सोच उर धारी।
सेवैं जस सेवहिं उपकारी।।
पाठन-पठन-श्रवन प्रभु-लीला।
करहिं त्यागि आलस गुनसीला।।
सकलै भोग लोक-परलोका।
मानि असत जग रहहिं असोका।।
कबहुँ न माँगहिं अस बरदाना।
करु प्रभु मोर अबहिं कल्याना।।
बरु चलि जाय प्रान अबिनासा।
पर नहिं माँगहिं भोग-बिलासा।।
त्यागी जन जग जस प्रह्लादा।
अगिनि प्रबेस कीन्ह अहलादा।।
दोहा-त्यागी माँगहिं कबहुँ नहिं, लोक औरु परलोक।
भोग-बिलास न चाहि के,जग मा रहहिं असोक।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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