जया मोहन प्रयाग राज

चलो कुछ लिखते हैं।


राम की पीड़ा


न चाहा था राजमुकुट


न चाहा साम्राज्य


मैं तो रहना चाहता था


सिर्फ अपनी सीता के पास


राजा बन कर हमने क्या सुख पाया


पत्नी होते हुए भी मैंने


विधुर सा जीवन बिताया


वह भटकी वनवन में


मैं तड़पा राजभवन में


बिन कसूर दोनों ने वेदना


सही तन मन मे


सबके बच्चो को देख आँखे


मेरी भर आती थी


अपने बच्चों के लिए तड़पी


मेरी छाती थी


पिता होकर भी वह पिता का प्यार न पा सके


महलों के राजकुँवर जंगल


में जीवन काट रहे


सब कहते रामराज में कोई


दुखी नही रहता


मेरे अंतर्मन की ज्वाला को


क्या किसी ने देखा


लोक रंजन के लिए मैंने


ह्रदय पाषाण कर डाला


कुल की लाज बचाने को


सीता ने कठोर निर्णय कर डाला


न सह सकती उसके राम को कोई दोषी कह सके


इक्छावकु वंश के गौरव को


न कलंक लग सके


सह लेगी विरह वेदना को


वो मन मे धीरज धर कर


मन से दूर नहोगी कभी


तन से दूर होकर


सारे जीवन तड़पते रहे मिलन न उनका हो सका


आत्म सम्मान बचाने को


सीता ने खुद को धरती को सौपा


मैं नारायण था पर अवतारी था विधना की गति को भोगा


साधारण नर की तरह सूख में हँसा दुख में रोया


मन का दर्द किसी से न कह पाया


पाकर भी अपनी सीता को


मैंने न पाया


स्वरचित


जया मोहन


प्रयागराज


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