काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार डॉ आभा माथुर जी उन्नाव

डॉ. आभा माथुर


जन्मतिथि-15-08-1947


जन्म स्थान-बिजनौर (उ.प्र.)


 


 


पूर्ण शिक्षा-डॉक्टरेट


कार्यक्षेत्र-उत्तर प्रदेश सरकार में प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी पद से सेवा निवृत्त


 


सामाजिक गतिविधियाँ 1-प्रान्तीय सचिव


भारत विकास परिषद्, रजि0


2-उपाध्यक्ष - रोटरी इण्टरनेशनल क्लब


3- सदस्य-जन एकता मुहिम


4-सदस्य-पेंशनर्स एसोसिएशन


 


लेखन विधा - कविताएं,कहानी,संस्मरण, लघुकथाएं ,लेख आदि


 


रचना प्रकाशन- विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र एवम पत्रिकाओं में नियमित शताधिक रचनाये संस्मरण कहानियां इत्यादि प्रकाशित


 


प्राप्त सम्मान- अनेक संस्थाओ द्वारा असंख्य सम्मान प्राप्त एवम शोशल मीडिया की प्रतियोगिताओं में सम्मानित


 


 


विशेष उपलब्धि-आँग्ल भाषा में भी लेखन


 


सम्पर्क सूत्र मोबाइल 9919577775


ईमेल abha.mathur.dr@gmail.com


1045 गाँधी नगर 


ईदगाह रोड,उन्नाव, उ.प्र.


              कविताये 1-पराया चाँद


तुम मिल कर भी 


  न मिल सके, 


 जैसे कोई पथिक प्यासा


 सागर जल अंजुलि में भर


 हसरत से देखे पर


प्यास को न छल सके, 


 कुछ यूँ ही मैं


 तुम्हें देखती रही


 शब्द बन गये


 भावों के बाँध थे


 तुम किसी और के चाँद थे. 


      --डॉ. आभा माथुर     


   


2- एक मैं बच गई


 


वह छोटी लड़की 


बहुत नटखट पर शिक्षिकाओं 


की प्यारी ,क्यों कि पढ़ाई सहित


सभी कार्यक्रमों में आगे


घिरी रहती थी सहेलियों से


 


वह नवयुवा प्रवक्ता जो


जानी जाती थी साहस 


और विनोद प्रियता के लिये


लोकप्रिय थी साथियों में


 


वह परिपक्व अधिकारी 


जो कर्मठता के लिये प्रसिद्ध थी


धीरे धीरे पड़ गई अकेली


अब समय काटती है


मोबाइल के साथ


 


अकेले में याद करती है


 


       


3- समन्दर


 


ऊपर से दिखता है शान्त


तू भी मैं भी, 


अन्तस् में तूफ़ान छुपाये


तू भी मैं भी


तेरे उर में जलचर विचरें


मेरे उर में लहरें


जाने क्या क्या राज़ छुपाये


दोनों ने ही गहरे


ज़ख़्म खाये दोनों बैठे हैं


झांके कोई अन्दर


क्या बतलाऊँ, किसे सुनाऊँ?


ऊपर दिखता सुन्दर


जानते हो, अनजान बनो मत


ओ समन्दर।                         


 


4- ख़रबूज़ा और यादें


आज ख़रबूजा़ खाया


ख़रबूज़ा अपने साथ


अनगिनत यादें ले आया


बचपन के दिन


घर में ख़रबूज़ों का आना


काट काट कर खाना


उनके बीजों का संग्रह


सड़ाया जाना


गूदा अलग कर धोना


सुखाया जाना और


सब बच्चों में बँटवारा


हिस्सा कम होने की शंका


बच्चों में खटपट


बड़ों की डाँट


छिलके न फैलाने का निर्देश


ख़रबूज़े अभी भी 


बाज़ार में आते हैं


वह स्वाद क्यों नहीं ?


 हम समझ नहीं पाते हैं,


 बहुत विचार किया तो पाया


 स्वाद ख़रबूज़े में नहीं,


 बचपन में था।


           डॉ.आभा माथुर


      


5- नये युग की नारी


 


नहीं चाहिये कोमल दुर्बल


छुई मुई सी ललनायें


आज चाहिये मेधा साहस


प्रज्ञा वाली बालायें


नारी का लज्जालु रूप अब


बीते कल की बात हुआ


निर्भयता, संकोच रहितता


यह है उसका रूप नया


काँटों भरे कठिन युग में


भूलो नत-नयना नारी को


तेजस्वी मुख निर्भीक दृष्टि


अब नहीं रही सुकुमारी वह


कोमलता अब नहीं चाहिये


युग है कठिन प्रहारों का


बच कर चलना है मुश्किल


नव युग है यह असि-धारों का


अब उच्चादर्शाें की अफ़ीम में


बेसुध न रह पायेगी


कर्तव्य विवश केवल नारी


यह स्थिति सही न जायेगी


अब उसे त्याग की देवी कहकर


स्वार्थ न साध सकोगे तुम


वस्त्राभूषण रूपी बे़डी में


अब नहिं बाँध सकोगे तुम


इसलिये आधुनिक नारी को


अनुचित लज्जा तज देनी है


जो विकृत हुई सदियों से वह


मूरत संशोधित करनी है


        


 


 


6- सावन आया है भरपूर


मन वल्लरी में किसलय फूटे


जग के नियम लगे सब झूठे


कामनाएं भी पंख पसारे


उड़ीं गगन में दूर


कि सावन आया है भरपूर


 


अम्बर में जब बादल घुमड़े


सौ सौ भाव हृदय में उमड़े


निर्गत बचपन मन पर छाया


यौवन ने भी गीत सुनाया


आयु भूल मन पीछे भागा


निकल गया अति दूर


कि सावन आया है भरपूर


 


दिवा स्वप्न जब टूटा मेरा


पाया चारों ओर अँधेरा


 


दिवा स्वप्न में करतल ध्वनि थी


सत्य जगत में मैं एकाकी


कहाँ गये वे जगमग सपने ?


कहाँ गये वे प्रियजन अपने


जीवन पथ पर चलते चलते


आ पहुँची अति दूर 


कि सावन आया है भरपूर


 


खिड़की से जब हाथ बढ़ाया


नीर बिन्दु ने कर सहलाया


रोमांचित कर तन मन मेरा


एक विस्मृत सपना दिखलाया


तन मन यूँ झंकृत कर डाला


बजता ज्यों सन्तूर 


कि सावन आया है भरपूर


 


दूर कौन वह छोटी बच्ची


नन्ही नन्ही बाहें फैला


गोल गोल चक्कर पर चक्कर


लगा रही है,वर्षा जल में


नहा रही है ,खिले फूल सा


उसका मुखड़ा,मुखड़े पर है नूर


कि सावन आया है भरपूर


 


पास आओ ए, छोटी बच्ची


चेहरा दिखलाओ तुम अपना


यह चेहरा तो पहचाना सा


लगता है कुछ कुछ अपना सा


अरे ये चेहरा मेरा कैसे


आह्लाद से दिप् दिप् करता


जैसे मला सिन्दूर


कि सावन आया है भरपूर


 


बच्ची बदली नवयुवती में


युवती से फिर प्रौढ़ा


प्रौढ़ा से फिर वृद्धा


जीवन पथ समाप्तप्राय है


ईश मिलन नहिं दूर


कि सावन आया है भरपूर


         *डॉ.आभा माथुर*


  


 


 


7-*ज़रा सोचो*


कन्याभोज करने वालों


तुम ध्यान से मेरी बात सुनो


यदि आये पसन्द यह बात मेरी


 तो इसको भरे समाज कहो


 यूँ तो छोटी बच्ची को तुम


 देवी कह पूजा करते हो


 पर वहीं अजन्मी कन्या को


 यमलोक तुम्ही पहुँचाते हो


 मासूम बच्चियों को पा कर


 राक्षसों की लार टपकती है


 वह छोटी है , क्या समझेगी


 टॉफ़ी पा गोद में आती है.


 अवसर पाते ही जो नर से


 एक नरपिशाच बन जाते हैं


वे ही नर ख़ुद को इस समाज


 का रखवाला बतलाते हैं


क्या सारे भारतवासी ही


 मानवता को हैं भूल गये ?


 क्यों मानव ,दानव बन बैठा?


 क्यों पाप पुण्य सब भुला दिये ?


 पाठक आगे की बात सुनो


 पंचायत का निर्णय देखो


 है गैंगरेप का दण्ड मिला


 एक बंगदेश की नारी को


 सोचा दण्ड के माध्यम से


 उनकी "दावत" हो जायेगी


 वे तो दण्डित कर रहे उसे


 उन पर कोई आँच न आयेगी


वह इसी गाँव की बेटी थी


" काका" कह तुम्हें बुलाती थी


तुमने ही ऐसा दण्ड दिया


 मानवता थर्रा जाती थी


 अब गर्वित सर ऊँचा कर के


 तुम जग में घूमा करते हो


 थू ,तुम नाली के कीड़ों पर


 जो ख़ुद को मर्द बताते हो


 कुछ पंचायत-सदस्य बनकर


 ख़ुद को भगवान समझ बैठे


 जीने दें तुम को या मारें


 अपना अधिकार समझ बैठे


 क्यों ग़ैर जाति से प्रेम किया ?


 क्यों अपने गाँव में प्रेम किया ?


 ऐसे नाना अपराधों का है


 केवल एक दण्ड " हत्या"


 दुर्भाग्य विवश कोई नारी


 किसी भेड़िये का शिकार बनी


 भेड़िये को देते दोष नहीं


 नारी निन्दा की पात्र बनी


 कब तक भारतवासी पीड़ित को


 निन्दित कर तड़पायेंगे ?


 ज़ख़्मों पर मरहम रख न सके


 वे जिह्वा बाण चलायेंगे 


 हा! भीष्म! अगर तुम होते तो


 तत्काल प्राण तुम तज देते


 तुमने न उठाया धनुष-बाण


 नारी माना था शिखन्डी को


 वह तो था अर्द्ध नारी लेकिन


उस पूर्ण नारी की करो बात


वध कर अपनी ही पुत्री का


मूँछों पर देते "मर्द" ताव


जितना सोचो उतनी ही यह


सूची बढ़ती ही जाती है


कुछ कुकृत्य तो ऐसे हैं


कहते जिह्वा कट जाती है


रक्षक ही जब भक्षक बनते


तब पाये निर्भया ठौर कहाँ ?


यह इसी देश की गाथा है


जग में ऐसा कोई देश कहाँ ?


ईश्वर मेरे भारत का तुम


उद्धार करो,मत देर करो


 अनुचित और उचित में भेद करें


 ऐसा विवेक हम सब को दो.


          डॉ. आभा माथुर


 


                 


8- दादी का गाँव


सुबह हो गई मीठी मीठी


लाली छाई चारों ओर


चीं चीं चूँ चूँ काँव काँव का


सारे नभ में छाया शोर


आशु उठा अँगड़ाई ले कर


जल्दी उसे नहाना है


नाश्ता कर, बस्ता लेकर


जल्दी स्कूल जाना है।


तभी उसे आ गई याद


कल टीचर की कही बात


" कल से गर्मी की छुट्टी है


एक मास की छुट्टी है ।"


मन उड़ गया सैर करने


लगा गगन में मन उड़ने


पक्षी चूँ चूँ क्यों करते हैं ?


क्या यह हमसे कुछ कहते हैं?


ध्यान लगा सोचा उसने 


तो बात का अर्थ समझ आया


कौआ संदेशा लाता है


यह दादी ने था बतलाया


उसने पूछा "कौए भाई, 


क्या तुम मुझसे कुछ कहते हो ?


जो कहना है स्पष्ट कहो


संकेतों में क्यों कहते हो ?"


कौआ बोला " काँव काँव


आशु चलो दादी के गाँव


गाँव में दादी रहती हैं


राह तुम्हारी तकती हैं


अब गर्मी की छुट्टी है, 


थोड़े दिन की मस्ती है"


आशु गया मम्मी के पास


बोला " मम्मी सुन लो बात


अब गर्मी की छुट्टी है


थोड़े दिन की मस्ती है


दादी के घर जाना है


नदी में ख़ूब नहाना है


बाग़ों में फूल खिले होंगे


पेड़ों पर आम लगे होंगे


ख़ूब आम मैं खाऊँगा


थोड़े तुम्हें खिलाऊँगा"


मम्मी पहले झल्लाईं


फिर थोड़ा सा मुस्काईं


बोलीं " बच्चे, बात सुनो


ज़िद्दी बच्चे नहीं बनो


तुम्हे मॉल ले जाऊँगी


पिज़्ज़ा भी खिलवाऊँगी"


लेकिन बच्चा मचल गया


गर्दन से माँ की लटक गया


"मॉल तो अक्सर जाते हैं,


गाँव मगर कब जाते हैं ?


गाँव में दादी रहती हैं


राह हमारी तकती हैं


वह भी पापा की मम्मी हैं


जैसे तुम मेरी मम्मी हो


जब टूर पे क्लास को टीचर ने


सारा लखनऊ घुमाया था


मैं सुबह सवेरे चला गया था


देर रात को आया था


तब तुम कितना घबराई थीं !


खाना भी खा नहिं पाई थीं !


जब लौट के मैं घर आया था


तब तुम्हें चैन आ पाया था


दादी पापा की मम्मी हैं।


वह भी तो घबराती होंगी,


क्या हम सब से दूर रह कर


वह कभी चैन पाती होंगी ?


जब कभी गाँव हम जाते हैं,


वह कितनी ख़ुश हो जाती हैं


लड्डू पूड़ी आम जामुन


वह हमको ख़ूब खिलाती हैं"


आख़िर बच्चे की जीत हुई


मम्मी उसकी ज़िद मान गईं


बच्चे की बातें सच्ची थीं


इस कारण मम्मी हार गईं


पापा तो यह ही चाहते थे, 


लेकिन वह कह ना पाते थे


बच्ते की बातें सुन सुन कर


वह फूले नहीं समाते थे


फिर कुछ दिन बाद ही दादी के


गाँव में वह सब बैठे थे


सब ख़ुश थे और आशु बाबू


आम के पेड़ पर बैठे थे


           *डॉ.आभा माथुर*   


       


9- बोन्साई


 


पहले मुझे भूमि से उखाड़ा गया


फिर सहायक जड़ें मेरी काटी गर्इं


जिससे मैं बढ़ न सकूँ


केवल मुख्य जड़ मेरी छोड़ी गई


जिससे मैं मर न सकूँ


गमले मैं रहता हूँ, शोभा बढ़ाता हूँ


निश्चित धूप, निश्चित छाँव पाता हूँ


निश्चित मात्रा में खाद पानी 


मेरा आहार है, हाँ यह सच है


कि मिलता मुझे दुलार है


समय, समय पर मेरी 


जड़ें काटी जाती हैं, समझ सकोगे 


क्या तुम मेरी व्यथा को ?


बैठक कक्ष में सजाया जाता हूँ


सराहना पाता हूँ


फिर भी कभी कभी यह सोचता


हूँ कि, विशाल वृक्षों की


मैं जगहँसाई हूँ


हाँ मैं बोन्साई हूँ।    


 


 


10 फ़ैशनेबल  चूज़ा


            ( बाल कविता )


उन्नाव के गाँधीनगर में रहता था एक चूज़ा


फड़फड़ करता घूमा करता काम न था कोई दूजा


उन्ही दिनों पड़ोसियों ने टीवी एक मँगाया


चूज़े को भी टीवी कार्यक्रमों ने बहुत लुभाया


रंग चढ़ा सोचा उसने क्यों खाऊँ दाना दुनका


क्यों न मैगी नूडुल्स खाऊँ बस दो मिनट का नुस्ख़ा ?


प्यास लगे तो पीऊँ पेप्सी ,विवेल से मैं नहाऊँ


गर्मी में एसी लगवाऊँ फ़ैशनेबल बन जाऊँ


इन्ही ख़्यालों में दिन दिन भर अब वह डूबा रहता


सब मुर्ग़े मुर्ग़ियों को वह अंकल आन्टी जी


कहता


बच्चे के यह ढंग देखकर उसकी माँ घबराती


लेकिन फिर भी क्या करती वह कुछ भी समझ न पाती


एक दिन चूज़ा माँ से बोला "लगती मुझे थकान


बढ़ती उम्र का बच्चा हूँ ला दो मुझको कॉम्प्लान


या फिर च्यवनप्राश ही ला दो,झंडू का ही लाना "


माँ बोली "क्या कहता है तू झाड़ू आज लगाना ?


बेटा हम मुर्ग़े मुर्ग़ी ,कूड़ा संसार हमारा


कूड़े से ही भोजन चुनते ,यह अधिकार हमारा"


चूज़े ने सर ठोंक लिया फिर बोला "मम्मी सुन लो


कूड़े से मुझको नफ़रत है मोती सोप मँगा दो "


माँ बोली " प्यारे बेटे मोती सुंदर है माना "


किन्तु कड़ा है बहुत ,भला संभव है उसको खाना ?"


चूज़े ने सोचा मुश्किल है इनको कुछ समझाना


गुमसुम होकर बैठ गया वह छोड़ा पीना खाना


एक दिन मुर्ग़ी बोली "बेटा क्यों रहते चुपचाप ?


कहो तो दूध मलाई लाऊँ ,मत हो मगर उदास"


चूज़ा थोड़ा चहका बोला "माँ चॉकलेट मँगा दो


या फिर मेरी अच्छी मम्मी अंकल चिप्स खिला दो "


मुर्ग़ी बोली " ना ना बेटा अंकल को नहीं


खाते


अंकल का तो आदर करना,करना उन्हे


नमस्ते "


चूज़ा बोला "छोड़ो मम्मी बिस्कुट ही खिलवा दो


प्रिया गोल्ड के गुड डे या फिर पार्ले जी


दिलवा दो "


"चुप कर ,चुप कर मेरे बेटे,अब फिर कभी


न कहना


पार्ले जी तो थानेदार हैं उन से बच कर


रहना"


चूज़ा कुछ मुस्का कर बोला "मत कुछ मुझे


खिलाओ


लेकिन मम्मी मुझको तुम एक कोल्ड ड्रिंक


पिलवाओ


कोका कोला सबसे अच्छा फ़ैन्टा भी चलेगा


अगर पिला दो लहर पेप्सी,मज़ा बहुत


आयेगा"


अब मुर्ग़ी को ग़ुस्सा आया,धक्का देकर


बोली


"भाग निकम्मे शरम न आती मुझ से करे


ठिठोली


अरे बेशरम मैं तो समझूँ ,तुझ को नन्हा बच्चा


लेकिन तू बन गया पियक्कड़ निकला सब


का चच्चा


पीते पड़ोस वाले भी हैं,पर पीते हैं देसी


तू तो सबसे आगे निकला माँग रहा


अंग्रेज़ी "


तब से लेकर आज तलक माँ बेटे की कुट्टी


है


आगे की फिर बतलायेंगे,आज की अब छुट्टी है


 


                         


               


 


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