काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार शोभा त्रिपाठी बिलासपुर छग


पति-श्री अशोक त्रिपाठी 


शीक्षा बी ए ( आयुर्वेद रत्न)


एन सी सी ,


कविता लेखन,समाज सेवा ,पर्यावरण, पौध संरक्षण पर विषेश रुचि


विगत 28 वर्षों से जागृति महिला समिति का गठन कर समाज सेवा ,


लायसं क्लब के विभिन्न, पदों मे रही। 


वर्तमान लायनेस एरिया आफिसर 


विषेश रुचि कविता, लेखन,विभिन्न साहित्यिक संगठन से जुडना, 


बालिका विकास, सामाजिक बदलाव पर विगत 8 वर्ष से लायसं क्लब से जुड कर कार्य ।


विगत 30 वर्षों से कविता लेखन 


विभिन्न, स्थानीय, पत्रिकाओं मे प्रकाशित 


सरकारी स्कूलों मे संस्कार कक्षा का आयोजन, अपनी संस्कृति, और आयुर्वेद का ज्ञान बच्चों के विकाश हेतु, आयोजित करती है।


साहित्य के क्षेत्र मे,दस एवं लायंस क्लब से अनेक पुरस्कार प्राप्त कर,निरंतर सेवा पथ पर,अग्रसर है।


धन्यवाद


 


शोभा त्रिपाठी "शैव्या"


 


कविता-1. मजदूर


                ******


  सुन साथी,मजदूर हूं मै,


जीवन जीता हुं,मस्ती मे मै।


चीन्ता नहीं सुहाता है,


मेहनत की ही श्रम रोटी,


मुझको अधिक लुभाता है ।


सुन साथी.......मजदूर हुं मै।


 


नए, नए ,संसाधन लाता,


नया नया पुल,सडक बनाता।


नाज. मुझे है अपने श्रम पर,


नव निर्माण सदा करता हुं ।


सुन साथी मजदूर हूं मै।


 


चीर पहाडों की छाती को ,


नव पथ का निर्माण करूँ मै।


कलपुर्जों की बात ना पुछो,


नया सदा आयाम, गढूं मै।


सुन साथी मजदूर हुं मै ।


 


अपनी ईच्छा शक्ति से ही,


पवन पालकी लाया हुं।


चीर समंदर का सीना भी ,


नया डगर दीखलाया हूं


सुन साथी मजदूर हुं मै।


 


विद्युत की खोजी किरणों को,


जल से ले कर आया हुं ।


अपनी शक्ति, अपने बल पर,


रास्ट्र नया गढ ,पाया हूं।


सुन साथी मजदूर हूं मै


....सुन साथी मजदूर हुं मै ।


 


✒ शोभा त्रिपाठी "शैव्या"


       बिलासपुर ( छ. ग.)


 


कविता- 2


**** नन्हे बीज की यात्रा****


 


 


एक नंन्हा बीज ,देखो डोलता,


अंकुरित हो बृक्ष बनना चाहता।


एक नन्हें हाथ ने,उसको छुआ,


दौड बागों मे,उसे संग ले गया।


 


खोदता मीट्टी खडा वह लाडला,


नीम का वह बीज तब हँसने लगा।


पास से गुजरी,तो नानी ने कहा,


आओ बेटा बीज हम रोपें धरा।


 


जल से सीचें, रोज,तो होगा बडा।


तब हमें यह ,छांव देगा,


ठंडी ये बयार देगा,


सावन मे झुले ,डलेगें।


 


हो मगन कजरी सुनेगें,


पींग मारेगें सभी तब,


मिल सभी साथी तुम्हारे।


साथ झुले मे चढेगें।


 


बीज तब रोपा धरा मे,


अंकुरित होता गया,


हो मगन वह ,नन्हा पौधा,


बृक्ष बन सजने लगा।


 


नन्हा बालक हो बडा,


उस बृक्ष को तकता रहा,


झुमती हर डालियाँ,


लग गई नीम्बोलियाँ।


 


ना जाने,कई बीज फिर,


सज उठेंगे साख पर,


और तब इक नन्हा पौधा,


बृक्ष बन होगा खडा।


 


आओ मिल हम सब संवारे,


इस धरा को बृक्ष से,


हो यदि संकल्प दृढ तो,


अवनि, हरित,जरूर होगी।


 


✒ शोभा त्रिपाठी "शैव्या"


       बिलासपुर( छ.ग.)


     (सर्वाधिकार सुरक्षित)


 


कविता- 3


माँ के सपूतों


      ***********


 


मै सोच रही,मन मे अपने ,


क्या बोलुं और क्या लिख जाउँ।


भारत माता के चरणों मे,मै कैसे जा कर बलि जाऊं।


 


उन वीर सपूतों के पथ पर ,


मै फूल बनूं, और बीछ जाऊं।


और कभी सुगंधित, बन बयार,


उनके सांसो मे,बस जाऊं।


 


उनके इस शौर्य पताके का,


कुछ चटक रंग बन लग जाउं।


कैसे मै उनका कर्ज भरूं,


क्या करूं कि उन पर लुट जाउं।


 


हम आप ऋणी, उन वीरो के,


कैसे ये कर्ज उतारेंगे।


 माँ का आँचल धन्य हुआ,


पिता का पालन धन्य हुआ ।


 


जब ले हथियार चला रण मे,


तब धरती, अंम्बर डोल उठा।


हो अर्जुन का गांडिव ,तुम्ही,,


हो तुम्ही सुदर्शन कान्हा के।


 


 


हो महाकाल का रौद्र रूप


माँ काली का चित्कार तुम्ही।


माता पर जान लुटाते हो,


और अजर अमर हो जाते हो।


 


सर्वोच्च शिखर, संम्मान,


प्राप्त कर लिपट तिरंगा जाता है।


है नमन् तुम्हें हे धीर वीर ,


है ऋणी सदा ,हमसब तेरे।


 


वंन्देमातरम् 


 ✒शोभा त्रिपाठी "शैव्या"


           बिलासपुर


 


कविता- 4


**मूर्ति***


 


मूरति तेरी सांवरा,


लगे ना मूरति मोहे।


जो देखूं मुख सांवरे,


लगे लखत ,हो मोहे।


 


वंशी की धुन सुन रही,


लगत बजाते तान।


प्रेम रंग ना छुटता,


रंगी श्याम रंग आज।


 


मन तो वृन्दावन हुआ,


गोकुल, मे तेरे साथ।


मूरती बोलें, लोग ,है,


 नयन दिखो साक्षात।


 


वंशी तेरी बज उठी,


मन बृन्दावन धाम।


खो गई तेरे प्रित मे,


तू तो है,मुझ माहीं ।


 


 


भई प्रेम मे बावरी,


तुम्हें पूजती श्याम।


छोड दिया,जग सांवला


पूर्ण भई मै आज।


 


प्रेम मेरो प्रभु,उदधि है,


उठत तरंगित ज्वार।


तुम्हें रखुं,ऐसो प्रभु,


ज्यों हो देह मे श्वास।


 


   


 ✒शोभा त्रिपाठी " शैव्या"


 


कविता- 5


 


मेरा गांव


 


मेरा गांव शहर, की ओर है,


ना अलसाए दिन है ।


ना रामलीला होती रातें ,


सब मौन है, मेरा गांव ...


 


ना अम्मा के अनाज की चक्की,


ना बाबा का चौपाल,


ना गोबर थापती दादी,


ना आग मांगने का मनुहार।


बदल रहा कौन है ,मेरा गांव ....।


 


ना नवाइन की नहन्नी,


ना लोहार का हंसिया।


ना सीलबट्टे की चटनी,


ना भथुए की भाजी।


बदल रहा कौन है,मेरा गांव.....


 


पराऐ लोगों से प्रेमिल बातें


अनदेखे लोगो से प्रेम भरी बातें।


वाडसप्, फेसबुक का ,


गुलाम हो रहा है ।


मेरा गांव शहर की ओर..।


 


मामा,चाचा,दादी, बुआ ,


कहने से शर्मसार हो रहा है।


अब अंकल,आंटी कहना ,


कमाल हो रहा.है ,मेरा गांव .


✒ शोभा त्रिपाठी


         बिलासपुर ।


 


 


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