श्रीमती सुषमा दीक्षित शुक्ला
पिता – स्व० डॉ० देव व्रत दीक्षित ( स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवम राष्ट्रीय कवि )
पति– स्व० श्री अनिल शुक्ल ( प्रधान संपादक राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचर पत्र )
माता का नाम
श्रीमती प्रभावती दीक्षित
सन्तान कुलदीप शुक्ल ,दुर्गमा शुक्ला
भाई बहन ,श्रीमती उषा ,कु आशा ,श्रीमती रश्मि ,श्री मृत्युंजय ,श्री शत्रुंजय
प्रकाशित पुस्तके ,मेरे बापू ,तुम हो गुरूर मेरे ,जीवन धारा
प्रकाशनाधीन कई पुस्तके हैं
शिक्षा _Msc , B ed, LLB, btc
साहित्य सृजन
विधा लेख, कविता ,गजल, संस्मर्ण ,कहानी ,गीत क्षणिका रूबाई निबंध बाल कथा बाल कविता लेख आलेख वृतान्त
आदि ।
प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न समाचारपत्रों पत्रिकाओं ,ऐप्स मे पोर्टल मे निरन्तर गति से कहानी ,लेख ,काव्य गद्य ,पद्य का नियमित प्रकाशन हो रहा है।
साहित्य के क्षेत्र मे कई पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।
अटल रत्न सम्मान ,जनचेतना अक्षर सम्मान ,विश्व जन चेतना प्रतिष्ठा सम्मान ,हिन्दी साहित्य संगम सम्मान,आदि
पद – शाषकीय शिक्षिका ( बेसिक शिक्षा परिषद )
निवास – E 34 23 , राजाजीपुरम, लखनऊ,उ०प्र० – 226017
E-mail– shukla1597@gmail.com
कविता 1
तुम्हारे न होने के बाद भी,
तुम्हारे होने का अहसास।
शायद यही है वह अंतर्चेतना,
जिसने मेरे भौतिक आकार को,
अब तक धरती से बांधे रखा है।
देह का मरना कहाँ मरना ,
भाव का अवसान ही तो मृत्यु है।
शायद तुमको अब तक याद होगा,
बहुत सी ख्वाहिशों के साथ,
जी रही थी मगर अब चल पड़ी।
जिस राह वह रास्ता अनंत है,
कभी-कभी अपनी नादानियों पर,
बहुत हंस लेने को दिल करता है,
तो कभी सांस लेने को भी नहीं ।
सच तो यह है कि हर फूल का,
दिल भी तो छलनी छलनी है ।
अंत मेरे हाथ लगना है बस ,
वो हवा में लिखी अनकही बातें,
वो साथ साथ देखें अधूरे ख्वाब।
अब कोई आहट कोई आवाज,
कोई पुकार नहीं तुम्हारी !
अब किसी उम्मीद से नहीं देखती,
घर के दरवाजे को मगर अब ,
खुद के भीतर ही तुम को पा लेना,
बस यही जीत है मेरी ,
बस यही जीत है मेरी।
सुषमा दीक्षित शुक्ला
कविता-2
सुनु आया मधुमास सखि,
लगा हृदय बिच बाण ।
देहीं तो सखि है यहाँ ,
प्रियतम ढिंग है प्राण ।
किहिके हित संवरूं सखी,
केहि हित करूं सिंगार।
बाट निहारु रात दिन ,
क्यूँ सुनते नाहि पुकार।
ऋतु बासन्ती सुरमई ,
पिया मिलन का दौर ।
पियरी सरसों खेत में ,
बगियन में है बौर ।
वह यह कैसो मधुमास सखि,
जियरा चैन ना पाय ।
नैनन से आंसू झरत ,
उर बहुतहि अकुलाय ।
पिय कबहूँ तो आयंगे ,
वापस घर की राह ।
बाट निहारूँ दिवस निसि ,
उर धरि उनकी चाह।
सबके प्रियतम संग हैं ,
बस मोरे हैं परदेस।
जियरा तड़पत रात दिन ,
याद नहीं कछु शेष ।
मन मेरो पिय सँग है,
ना भावे कोई और ।
वह दिन सखी कब आयगो ,
जब पिय सिर साजे मौर ।
रात दिवस नित रटत हूँ,
मैं उन्ही को नाम ।
उनके बिन ना चैन उर,
ना मन को आराम ।
डर लागत है सुनु सखी ,
वह भूले तो नाह ।
हम ही उनकी प्रेयसी ,
हम ही उनकी चाह।
ऋतु बासंती सुनु ठहर ,
जब लौं पिया ना आय ।
तू ही सखि बन जा मेरी,
प्रियतम दे मिलवाय ।
सुषमा दिक्षित शुक्ला
कविता-3
फिर ढलेगी रात काली सुकूँ से होगी गुज़र,,,
फिर अमन की शाम होगी ,
अमन की होगी सहर ।
फिर चमन गुलज़ार होंगे ,
खुशबुओं से तर ब तर ।
फिर वतन आबाद होगा,
भाग जायेगा कहर ।
अमन होगा चैन होगा ,
वतन में आठों पहर ।
गीत गाती हरित फसलें ,
फिर मिलेंगी खेत पर।
तितलियाँ फिर नृत्य करती,
गुलसितां पेशे नज़र ।
बालकों की टोलियां ,
फिर से मिलेंगी खेल पर।
फिर लगेंगे क्लास सारे ,
फिर न होगा जेल घर ।
फिर ढलेगी रात काली ,
सुकूँ से होगी गुज़र ।
चमन जैसा खिल उठेगा ,
वतन का साजो शज़र ।
फिर अमन की शाम होगी ,
अमन की होगी सहर ।
फिर चमन गुलजार होंगे ,
खुशबुओं से तर ब तर ।
सुषमा दीक्षित शुक्ला
कविता-4
विषय पथ
विधा छंद मुक्त कविता
मैं श्रमिक हूँ हाँ मैं श्रमिक हूँ ।
समय का वह प्रबल मंजर ,
भेद कर लौटा पथिक हूँ ।
मैं श्रमिक हूँ हाँ मैं श्रमिक हूँ।
कर्म ही है धर्म मेरा
कर्म पथ का मैं पथिक हूँ ।
अग्नि पथ पर नित्य चलना ,
ही श्रमिक का धर्म है ।
कंटको के घाव सहना ,
ही श्रमिक का मर्म है ।
वक्त ने करवट बदल दी,
आज अपने दर चला हूँ।
भुखमरी के दंश से लड़,
आज वापस घर चला हूँ ।
मैं कर्म से डरता नही ,
खोद धरती जल निकालूँ।
शहर के तज कारखाने ,
गांव जा फिर हल निकालूँ ।
कर्म ही मम धर्म है ,
कर्म पथ का मैं पथिक हूँ।
समय का वह प्रबल मंजर,
भेद कर लौटा पथिक हूँ।
सुषमा दीक्षित शुक्ला
कविता-5
सेवा इंसान को बनाती महान
जग में सेवा करने वाले,
ही महान बन पाए हैं ।
मानो सेवा की खातिर ही ,
वह धरती पर आये हैं ।
मानव सेवा से बढकर ,
तो कोई कर्म नहीं है ।
मानवता से बढ़कर जग में,
कोई धर्म नहीं है ।
सेवा का है धर्म निराला ,
करो वतन की तुम सेवा ।
धरती मां की सेवा कर लो ,
करो गगन की तुम सेवा ।
कितने कंटक राह मिलें पर,
सेवा से घबराना ना।
यही कर्म है यही धर्म है ,
पीछे तुम हट जाना ना ।
मात पिता औ गुरु की सेवा,
सब संताप मिटाती है ।
सेवा बिन सारी पूजा भी ,
निष्फल ही हो जाती है ।
युगों युगों से गौ सेवा का ,
सुंदर नियम विधान रहा।
देव ,मनुज अरु मुनियों ने भी,
गौ सेवा को धर्म कहा ।
वृक्षों की सेवा से लेकर ,
पशुओं तक की सेवा को।
धर्म समझकर मीत निभाओ,
पा जाओगे मेवा को ।
सास ससुर और पति की सेवा,
सती सावित्री ने जब की।
काल देव भी कांप उठे तब ,
बदला विधि का नियम तभी ।
लक्ष्मण की सेवा से सीखो ,
सीखो श्रवण कुमार से ।
एकलव्य की सी गुरु सेवा ,
सीखो कुछ संसार से ।
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