काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार डॉ.शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप' तिनसुकिया,आसाम

डॉ.शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"


 


गीत,गजल,कविताएँ, छन्द जैसे दोहा,चौपाई, घनाक्षरी,लघु कथाएं आदि में लेखन तथा असम प्रदेश की पृष्ठ भूमि पर रचित साझा उपन्यास बरनाली का प्रमुख सम्पादन किया है।


देश की प्रतिश्ठित साहित्यिक संस्थाओं द्वारा श्रेष्ठ रचनाकार,समाज भूषण,काव्य विदुषी एवम डॉक्टरेट की मानद उपाधी से सम्मानित हुई हूँ।


पाँच स्वरचित तथा कई साझा संकलन प्रकाशित हुए हैं। समाचार पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित होती है।


वर्तमान में असम के तिनसुकिया में रहती हूँ।


Email-


Suchisandeep2010@gmail.com


 


कविता 1


                माँ शारदे वंदना


 


                (मदिरा सवैया)


 


शारद माँ कवि भारत के


     नित शीश झुका कर ध्यावत हैं।


ज्ञान भरो उर भीतर माँ


     कर जोर प्रभात मनावत हैं।


हाथ सदा सर पे रखना


      नवगीत सदा कवि गावत हैं।


उत्सव नित्य यहाँ रहता


      सुख जीवन का सब पावत हैं।


 


वास रहे चित मात सदा


      मन मूरत शारद की धरलें।


लोभ हरो छल दूर करो


     बस सत्य लिखें मन में करलें।


राह दिखा कर नेक सदा


    निज जीवन में खुशियाँ भर लें।


सत्य सनातन धर्म यही


    दुख दोष सभी जग के हर लें।


 


भाव दिए तुमने हमको


   यश लेखन शक्ति हमें वर दो।


छन्द लिखें कविता लिखलें


    गुण लेखन का सबमें भर दो।


जोड़ रहे कर मात सदा


     तुम ज्ञान अपार बहाकर दो


उच्च रहे यह धाम सदा


     'शुचि' नाम बड़ा जग में करदो।।


 


डॉ.शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप"


तिनसुकिया,असम


 


कविता 2


देशभक्ति गीत


विष्णुपद छंद [सम मात्रिक]


 


 


     


इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी


हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।


 


वही खून फिर से दौड़े जो,भगतसिंह में था,


नहीं देश से बढ़कर दूजा, भाव हृदय में था,


प्रबल भावना देशभक्ति की,नेताजी जैसी,


इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी


हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।


 


वही रूप सौंदर्य वही हो,सोच वही जागे,


प्राणों से प्यारी भारत की,धरती ही लागे,


रानी लक्ष्मी रानी दुर्गा सुंदर थी कैसी,


इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी


हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।


 


गाँधीजी की राह अहिंसा,खादी पहनावा,


सच्चाई पे चलकर छोड़ा,झूठा बहकावा,


आने वाला कल सँवरे बस,डगर चुनी ऐसी,


इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी


हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।


 


वीर शिवाजी अरु प्रताप सा,बल छुप गया कहाँ,


आओ जिनकी संतानें थी,शेर समान यहाँ,


आँख उठाए जो भारत पर,ऐसी की तैसी,


इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी


हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।


 


#स्वरचित


डॉ.शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप*


तिनसुकिया,आसाम


 


 


कविता3


"ये बेटियाँ"


विधा-लावणी छन्द


 


 घर की रौनक होती बेटी, है उमंग अनुराग यही।


बेटी होती जान पिता की, है माँ का अभिमान यही।।


 


जब हँसती खुश होकर बेटी, आँगन महक उठे सारा।


मन मृदङ्ग सा बज उठता है, रस की बहती है धारा।।


त्योंहारों की चमक बेटियाँ,मन मन्दिर की ज्योति है।


 प्रेम दया ममता का गहना,यही बेटियाँ होती है।।


महक गुलाबों सी बेटी है,कोयल की है कूक यही।


बेटी होती जान पिता की, है माँ का अभिमान यही।।


 


बसते हैं भगवान जहाँ खुद, उनके घर यह आती है।


पालन पोषण सर्वोत्तम वह, जिनके हाथों पाती है।।


पल में सारे दुख हर लेती ,बेटी जादू की पुड़िया।


दादा दादी के हिय को सुख ,देती हरदम ये गुड़िया।।


माँ शारद लक्ष्मी दुर्गा का ,होती है सम्मान यही।


बेटी होती जान पिता की, है माँ का अभिमान यही।


 


मात पिता के दिल का टुकड़ा, धड़कन बेटी होती है।


रो पड़ता है दिल अपना जब ,दुख से बेटी रोती है।।


जाती है ससुराल एक दिन,दो कुल को महकाने को।


मीठी बोली से हिय बसकर, घर आँगन चहकाने को।।


बेटी की खुशियों का दामन, अपनी तो मुस्कान यही।


बेटी होती जान पिता की है माँ का अभिमान यही।


 


 डॉ.शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"


तिनसुकिया, असम


 


कविता 4


आसाम प्रदेश पर आधारित


     "दोहे"


 


 ब्रह्मपुत्र की गोद में,बसा हुआ आसाम।


प्रथम किरण रवि की पड़े,वो कामाख्या धाम।।


 


हरे-हरे बागान से,उन्नति करे प्रदेश।


खिला प्रकृति सौंदर्य से,आसामी परिवेश।।


 


धरती शंकरदेव की,लाचित का ये देश।


कनकलता की वीरता,ऐसा असम प्रदेश।।


 


ऐरी मूंगा पाट का,होता है उद्योग।


सबसे उत्तम चाय का,बना हुआ संयोग।।


 


हरित घने बागान में,कोमल-कोमल हाथ।


तोड़ रहीं नवयौवना,मिलकर पत्ते साथ।।


 


हिमा दास ने रच दिया,एक नया इतिहास।


विश्व विजयिता धाविका,बनी हिन्द की आस।।


 


#स्वरचित


शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"


तिनसुकिया, आसाम


 


कविता5


*प्रेम-सगाई*


    विधा-लावणी छन्द


(सम्पूर्ण वर्णमाला पर एक अनूठा प्रयास)


 


*अ* भी-अभी तो मिली सजन से,


*आ* कर मन में बस ही गये।


*इ* स बन्धन के शुचि धागों को,


*ई* श स्वयं ही बांध गये।


 


*उ* मर सलोनी कुञ्जगली सी,


*ऊ* र्मिल चाहत है छाई।


*ऋ* जु मन निरखे आभा उनकी,


*ए* कनिष्ठ हो हरषाई।


 


*ऐ* सा अपनापन पाकर मन,


*ओ* ढ़ ओढ़नी झूम पड़ा,


*औ* र मेरे सपनों का राजा,


*अं* तरंग मालूम खड़ा।


 


*अ:* अनूठा अनुभव प्यारा,


*क* लरव सी ध्वनि होती है।


*ख* नखन चूड़ी ज्यूँ मतवाली,


*ग* हना हीरे-मोती है।


 


*घ* न पानी से भरे हुए ज्यूँ,


*च* न्द्र-चकोरी व्याकुलता।


*छ* टा निराली सावन जैसी,


*ज* रा जरा मृदु आकुलता।


 


*झ* रझर झरना प्रेम का बरसे,


*ट* सक उठी मीठी हिय में।


*ठ* हर गया हो कालचक्र भी,


*ड* र अंजाना सा जिय में।


 


*ढ* म-ढम ढोल नगाड़े बाजे,


*त* निक हँसी आ जाती है।


*थ* पकी स्वीकृत मौन प्रेम की,


*द* मक नयन में लाती है।


 


*ध* ड़क रहा दिल स्नेहपात्र पा,


*न* व नूतन जग लगता है।


*प्र* णय निवेदन सर आँखों पर,


*फा* ग प्रेम सा जगता है।


 


*ब* न्द करी तस्वीर पिया की,


*भ* री तिजोरी मन की है।


*म* हक उठी सूनी सी बगिया,


*य* ही कथा पिय धन की है।


 


*र* हना है अब साथ सदा ही,


*ल* गन लगी मन में भारी,


*व* ल्लभ की मैं बनूं वल्लभा,


' *शु* चि' प्रभु की है आभारी।


 


*स* कल सृष्टि सुखदायक लगती,


*ष* धा डगर है जीवन ही,


*ह* म बन जायें अब मैं-तुम से,


*क्ष* णिक नहीं आजीवन ही।


 


*त्रा* स नहीं,सुख की बेला है ,


*ज्ञा* त यही बस होता है।


 वर्णमाल सी ऋचा है जीवन,


 भाव भरा मन होता है।


 


 



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