*परिचय* : डॉ मीरा त्रिपाठी पांडेय
*जन्म तिथी* : १ नवम्बर, मिर्ज़ापुर (उत्तर प्रदेश) ।
*शिक्षा* : एम. ए. (हिंदी साहित्य, राजनीति शास्त्र), पी. एच. डी - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
बी.एड - मुंबई वि. वि
ध्यान प्रशिक्षिका- महर्षि अंतराष्ट्रीय वि. वि, नॉएडा ।
*समाज सेवा* : अखिल भारतीय अपराजिता समाज सेवा संस्थान अध्यक्षा के रूप में सामाजिक, सांस्कृतिक व् पर्यावरणीय समाज सेवा का लगभग २० वर्षों की समाज सेवा ।
जागरूकता शिविर, नेतृत्व प्रशिक्षण शिविर, वार्ता, परामर्श द्वारा महिलाओं की समाज सेवा ।
*कार्य अनुभव* : प्रवक्ता, अकबर पीरभोय महाविद्यालय
विभागाध्यक्ष- हिंदी विभाग ।
*प्रकाशन एवं प्रसारण* : कविताओं, कहानियों एवं अन्य रचनाओं का पत्र पत्रिकाओँ में सत्त प्रकाशन ।
*प्रकाशन* : साझा संकलन: मुंबई की हिंदी कवयित्रियाँ,
सीप के मोती, काव्यप्रवाहिनी, काव्यतारंगिनी, जब जब याद आये..., अनुभव: कहानी संग्रह, काव्यधारा, रत्नावली ।
एकल संकलन: एक थी गौरी, अंतरमन के द्वार, उस मीरा से इस मीरा तक
एवं आकाशवाणी वाराणसी, इलाहाबाद, और मुंबई से प्रसारित कविताएँ ।
महाराष्ट्र साहित्य अकादमी में काव्य पाठ ।
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१. *समाधि के स्वर*
मैं ध्यान योगिनी हूँ...
पल पल की मोहिनी हूँ...
मोहन की बातें करती हूँ...
मैं ध्यान योग में रहती हूँ ।
आठों आयाम मेरा है...
प्राणायाम का डेरा है...
आसमान में आसन है...
इतना बड़ा सुशासन है ।
प्रत्याहार की बातें है...
स्वल्पाहार सिखाते हैं...
आठों याम ध्यान में जाता...
मानव मन प्रखर हो जाता ।
धारणा धारण करती हूँ...
सतत् समाधि में रहती हूँ...।।
डॉ मीरा त्रिपाठी पांडेय
पुस्तक: उस मीरा से इस मीरा तक...
२. *नारी*
कर्म की उपासिनी,
नारी, ही है कर्मिणी ।
धर्म की ध्वजा लिए,
मौन की सजा लिए,
अधर्म की हतभागिनी ।
जीवन की सहधर्मिणी,
आँचल में दूध लिए,
नयन में दुकूल लिए,
मन में अनुकूल लिए,
समाज प्रतिकूल लिए,
अनुबंध की है मानिनी,
जगत् धर्मशालिनी ।
कर्म का हथौड़ा, हाथ में
जगत् लिए साथ में ।
नेह की प्रवासिनी,
जगत् की निवासिनी ।
मानव की सहधर्मिणी,
जन्म से मरण तक ।
सत्यधर्म मानिनी ।।
३. *मन बंजारा भागे*
मन बंजारा भागे...
नीले अंबर से आगे...
घनी धूप में रात हुई है...
सपनों में बरसात हुई है...
मन से मन की बात हुई है...
सोएँ जज़्बात हैं जागे...
मन बंजारा भागे...
नीले अंबर के आगे... ।।
संकल्प का बिछौना है...
सुरभित मन का कोना है...
इस धरती से उस अंबर तक...
सुंदर सपन सलोना है...
मन बंजारा भागे...
नीले अंबर से आगे... ।।
अतल- वितल है...
मन सम- तल है...
मन ही मन को भांपे...
मन की गहरायी को नापे...
मन बंजारा भागे...
नीले अंबर से आगे... ।।
राग- रागिनी संग ए डोले...
ख़्वाबों के नित नए हिंडोले...
मन में ए अमृत रस घोले...
मन के सब अन्तरतम खोले...
मन बंजारा भागे...
नीले अंबर से आगे...।।
चंचन मन में दीप जलाएँ...
आँधी से फिर उसे बचाएँ...।।
४. *" श्रम की सार्थकता "*
कर्म की जय बोलो,
श्रम की महिमा तोलो ।
सृजन दिवस है, अखिल
विश्व में...
कर्मरती पशु- पक्षी भी,
हैं मानव सृष्टि में ।
कर्मरत मन है ।
सुख दिवास्वप्न है ।
कर्म ही धर्म है ।
कर्म ही पूजा ।
कर्मकार सा नहीं कोई दूजा ।
कर्म है विश्वास ।
कर्म ही है आभास ।
श्रम ही है, जीवन संबल ।
सृजन का पल -हर -पल ।
कर्म का ऐसा सुन्दर लेख ।
श्रम ही है, जीवन आलेख ।
धरा का यही है, सच्चा सपूत ।
अन्न ही है, हवन का हूत ।
कर्म का उत्कृष्ट नमूना...
नारी सृष्टि का कोना- कोना ।।
५. *कोरोना-ए- कहर*
स्वर हुए खामोश अब तो,
परछाइयाँ दिखती नहीं हैं
हर तरफ पसरा अँधेरा,
रौशनी भी गुम हुई अब ।
चाँद- सूरज तो वहीँ हैं,
धरा- गगन भी तो वही हैं ।
क्यों हुए खामोश स्वर है ?
सम्वेदनाएँ थम-सी गयी क्यों ?
आला चमन भी वही है,
अहले वतन भी वही है ।
प्रकृति से जितने दूर हुए,
उसकी सजा तो मिलनी थी ।
इस महामारी ने जीना,
सबका दुश्वार किया ।
न आर किया न पार किया,
बीच में डेरा डाल दिया ।।
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