काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार विवेक रंजन श्रीवास्तव जबलपुर

विवेक रंजन श्रीवास्तव


 


२८ जुलाई १९५९ में मण्डला के एक साहित्यिक परिवार में जन्म हुआ . इंजीनियरिंग की पोस्ट ग्रेडुएट शिक्षा के बाद विद्युत मण्डल में शासकीय सेवा . संप्रति मुख्यालय में मुख्य अभियंता के रूप में सेवारत हैं . १९९२ में पहली किताब आक्रोश नई कविताओ की छपी . फिर व्यंग्य की किताबें रामभरोसे , कौआ कान ले गया , मेरे प्रिय व्यंग्य , धन्नो बसंती और बसंत आई . मिली भगत नाम से एक सयुक्त वैश्विक व्यंग्य संग्रह का संपादन किया जिसमें दुनियांभर से ५१ व्यंग्यकारो के व्यंग्य शामिल हैं . व्यंग्य के नवल स्वर में सहभागिता . टी वी , रेडियो , पत्र पत्रिकाओ में निरंतर प्रकाशन .


संपर्क


बंगला नम्बर ए १ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर ४८२००८


मो ७०००३७५७९८


 


1


बीरबल तुम्हारी जाने कब


पकने वाली


खिचडी


जो तुमने पकाई थी कभी


उस गरीब को


न्याय दिलाने के लिये


क्यों आज न्याय के नाम पर


पेशी दर पेशी पक रही है


पक रही है पक रही है


खिचडी क्यों


बगुलों और काले कौऔ की ही गल रही है


और आम जनता


सूखी लकडी सी


देगची से


बहुत नीचे


बेवजह जल रही है


दाल में कुछ काला है जरूर


क्योंकि


रेवडी


सिर्फ अपनों को ही बंट रही है


रेवडी तो हमें चाहिये भी नहीं बीरबल


पर मुश्किल यह है कि


दो जून किचडी भी नहीं मिल रही है


 


Vivek Ranjan Shrivastava


 


2


 


वसीयत


 


माना


कि मौत पर वश नही अपना


पर प्रश्न है कि


क्या जिंदगी सचमुच अपनी है ?


हर नवजात के अस्फुट स्वर


कहते हैं कि ईश्वर


इंसान से निराश नहीं है


हमें जूझना है जिंदगी से


और बनाना है


जिदगी को जिंदगी


 


इसलिये


मेरे बच्चों


अपनी वसीयत में


देकर तुम्हें चल अचल संपत्ति


मैं डालना नहीं चाहता


तुम्हारी जिंदगी में बेड़ियाँ


तुम्हें देता हूँ अपना नाम


ले उड़ो इसे स्वच्छंद/खुले


आकाश में जितना ऊपर उड़ सको


 


सूरज की सारी धूप


चाँद की सारी चाँदनी


हरे जंगल की शीतल हवा


और झरनों का निर्मल पानी


सब कुछ तुम्हारा है


इसकी रक्षा करना


इसे प्रकृति ने दिया है मुझे


और हाँ किताबों में बंद ज्ञान


का असीमित भंडार


मेरे पिता ने दिया था मुझे


जिसे हमारे पुरखो ने संजोया है


अपने अनुभवों से


वह सब भी सौंपता हूँ तुम्हें


बाँटना इसे जितना बाँट सको


और सौंप जाना कुछ और बढ़ाकर


अपने बच्चों को


 


हाँ


एक दंश है मेरी पीढ़ी का


जिसे मैं तुम्हें नहीं देना चाहता


वह है सांप्रदायिकता का विष


जिसका अंत करना चाहता हूँ मैं


अपने सामने अपने ही जीवन में...


 


3


 


मुखौटे


 


बचपन में


मेरे खिलौनों में शामिल थी एक रूसी गुड़िया


जिसके भीतर से निकल आती थी


एक के अंदर एक समाई हुई


हमशकल एक और गुड़िया


बस थोड़ी सी छोटी आकार में !


 


सातवीं


सबसे छोटी गुड़िया भी बिलकुल वैसी ही


जैसे बौनी हो गई हो


पहली सबसे बड़ी वाली गुड़िया


सब के सब एक से मुखौटौ में !


 


बचपन में माँ को और अब पत्नी को


जब भी देखता हूँ


प्याज छीलते हुये या


काटते हुये पत्ता गोभी


परत दर परत , मुखौटों सी हमशकल


बरबस ही मुझे याद आ जाती है


अपनी उस रूसी गुड़िया की !


बचपन जीवन भर याद रहता है !


 


मेरे बगीचे में प्रायः दिखता है


एक गिरगिटान


हर बार एक अलग पौधे पर ,


कभी मिट्टी तो कभी सूखे पत्तों पर


बिलकुल उस रंग के चेहरे में


जहाँ वह होता है


मानो लगा रखा हो उसने


अपने ही चेहरे का मुखौटा


हर बार एक अलग रँग का !


 


मेरा बेटा


लगा लेता है कभी कभी


रबर का कोई मास्क


और डराता है हमें ,या


हँसाता है कभी


जोकर का मुखौटा लगा कर !


 


मैँ जब कभी


शीशे के सामने


खड़े होकर


खुद को देखता हूँ तो


सोचता हूँ अपने ही बारे में


बिना कोई आकार बदले


मास्क लगाये


या रंग बदले ही


मैं नजर आता हूँ खुद को


अनगिन आकारों ,रंगो, में


अवसर के अनुरूप


कितने मुखौटे


लगा रखे हैं मैने !


 


विवेक रंजन श्रीवास्तव


 


किसना जो नामकरण संस्कार के अनुसार


मूल रूप से कृष्णा रहा होगा


किसान है ,


पारंपरिक ,पुश्तैनी किसान !


लाख रूपये एकड़ वाली धरती का मालिक


इस तरह किसना लखपति है !


मिट्टी सने हाथ ,


फटी बंडी और पट्टे वाली चड्डी पहने हुये,


वह मुझे खेत पर मिला,


हरित क्रांति का सिपाही !


किसना ने मुझे बताया कि ,


उसके पिता को ,


इसी तरह खेत में काम करते हुये ,


डंस लिया था एक साँप ने ,


और वे बच नहीं पाये थे,


तब न सड़क थी और न ही मोटर साइकिल ,


गाँव में !


इसी खेत में , पिता का दाह संस्कार किया था


मजबूर किसना ने, कम उम्र में ,अपने काँपते हाथों से !


इसलिये खेत की मिट्टी से ,


भावनात्मक रिश्ता है किसना का !


वह बाजू के खेत वाले गजोधर भैया की तरह ,


अपनी ढ़ेर सी जमीन बेचकर ,


शहर में छोटा सा फ्लैट खरीद कर ,


कथित सुखमय जिंदगी नहीं जी सकता ,


बिना इस मिट्टी की गंध के !


नियति को स्वीकार ,वह


हल, बख्खर, से


चिलचिलाती धूप,कड़कड़ाती ठंडऔर भरी बरसात में


जिंदगी का हल निकालने में निरत है !


किसना के पूर्वजों को राजा के सैनिक लूटते थे,


छीन लेते थे फसल !


मालगुजार फैलाते थे आतंक,


हर गाँव आज तक बंटा है , माल और रैयत में !


समय के प्रवाह के साथ


शासन के नाम पर,


लगान वसूली जाने लगी थी किसान से


किसना के पिता के समय !


अब लोकतंत्र है ,


किसना के वोट से चुन लिया गया है


नेता , बन गई है सरकार


नियम , उप नियम, उप नियमों की कँडिकायें


रच दी गई हैं !


अब  स्कूल है ,


और बिजली भी,सड़क आ गई है गाँव में !


सड़क पर सरकारी जीप आती है


जीपों पर अफसर ,अपने कारिंदों के साथ


बैंक वाले साहब को किसना की प्रगति के लिये


अपने लोन का टारगेट पूरा करना होता है!


फारेस्ट वाले साहेब ,


किसना को उसके ही खेत में ,उसके ही लगाये पेड़


काटने पर ,नियमों ,उपनियमों ,कण्डिकाओं में घेर लेते हैं !


किसना को ये अफसर ,


अजगर से कम नहीं लगते, जो लील लेना चाहते हैं, उसे


वैसे ही जैसे


डस लिया था साँप ने किसना के पिता को खेत में !


बिजली वालों का उड़नदस्ता भी आता है ,


जीपों पर लाम बंद,


किसना अँगूठा लगाने को तैयार है, पंचनामें पर !


उड़नदस्ता खुश है कि एक और बिजली चोरी मिली !


किसना का बेटा आक्रोशित है ,


वह कुछ पढ़ने लगा है


वह समझता है पंचनामें का मतलब है


दुगना बिल या जेल !


वह किंकर्तव्यविमूढ़ है , थोड़ा सा गुड़ बनाकर


उसे बेचकर ही तो जमा करना चाहता था वह


अस्थाई ,बिजली कनेक्शन के रुपये !


पंप, गन्ना क्रशर , स्थाई , अस्थाई कनेक्शन के अलग अलग रेट,


स्थाई कनेक्शन वालों का ढ़ेर सा बिल माफ , यह कैसा इंसाफ !


किसना और उसका बेटा उलझा हुआ है !


उड़नदस्ता उसके आक्रोश के तेवर झेल रहा है ,


संवेदना बौनी हो गई है


नियमों ,उपनियमों ,कण्डिकाओं में बँधा उड़नदस्ता


बना रहा है पंचनामें , बिल , परिवाद !


किसना किसान के बेटे


तुम हिम्मत मत हारना


तुम्हारे मुद्दों पर , राजनैतिक रोटियाँ सेंकी जायेंगी


पर तुम छोड़कर मत भागना खेत !


मत करना आत्महत्या ,


आत्महत्या हल नहीं होता समस्या का !


तुम्हें सुशिक्षित होना ही होगा ,


बनना पड़ेगा एक साथ ही


डाक्टर , इंजीनियर और वकील


अगर तुम्हें बचना है साँप से


और बचाना है भावना का रिश्ता अपने खेत से !


विवेक रंजन श्रीवास्तव


5


झोपडी तुम इकाई हो


इमारतों की


तुम्हें नही मिटने देंगे


ये सरकारी दफ्तर


और उनमें काम करने वाले


तुम्हारी गिनती पर आधारित हैं


इनकी योजनायें


और उनका धन आबंटन


बरसात में बाढ़ आती है


तुम्हारी क्षति का आकलन होता है


सहायता राशि बंटती है


कुछ न कुछ इनके लिये भी बचती है


संवेदना के सर्वेक्षणों की


हवाई यात्रा


फोटो फ्रंट पेज पर छपती है


शीत लहर चलेगी


प्रकृति का नियम ही है


तुम्हारे आसपास


अलाव की माँग उठेगी


कोई समाज सेवी संस्था


तुम्हारे इलाके में कँबल बांटेगी


सरकारी अनुदान की आँच तापेगी


गर्मियों मे


आग लगने की


घटनायें भी होंगी ही


तब


घांस फूस बाँस के साथ


स्वाहा हो जायेंगे


तुम्हारे भीतर बुने गये


छोटे छोटे सपने


नेता जी बिना बुलाये आयेंगे


बहुत सी घोषणायें कर जायेंगे


झोपडी


तुम नेता जी का वोट बैंक हो


तुम्हें नही मिटने देंगी


उनकी आकांक्षायें


झोपडी


तुम्हारे चित्र कला है


तुम्हारी संस्कृति लोक जीवन है


तुम्हारी बेबसी


कथाकार का बिम्ब है


तुम्हारे अक्स में जिंदा है भारत


तुम्हें नहीं पता


तुम विकास के मैनेजमैंट का


कच्चा माल हो


और जनवादी चिंतन का आधार हो


जागो झोपडी


जागो


तुम्हारे हिस्से की नदी बही जा रही है


उसमें नहा रहे हैं


अफसरों के बंगले


और नेताओं की हवेलियां


क्रंदन कर रहा है तुम्हारे हिस्से का समुद्र


और झुका जा रहा है तुम्हारा आकाश


उठो जोपडी


पढ़ो विकास के पहाडे


तुम्हारी पूँजी है तुम्हारी सँख्या


तुम्हारी शक्ति है तुम्हारा श्रम


तुम्हें रिझाने चली आ रही हैं दुनियाँ


देखो छप्पर के सूराख से


सूरज झाँक रहा है


लेकर बेतहाशा सुरमई धूप


तुम्हारे हिस्से की


और घुसा आ रहा है


ताजी हवा का झोंका


तुम्हारा


पसीना पोंछने !


Vivek ranjan shrivastava


 


 


सावन


 


विवेक रंजन श्रीवास्तव


जबलपुर


 


किसे मालूम था ऐसा भी सावन आयेगा


मुंह ढ़ंके हैं सब अकेले समय ऐसा आयेगा


 


ब्रेकिंग खबरें हैं झमाझम टूटकर बरसात होगी


ये हवा तूफान मौसम सितम कितना ढ़ायेगा


 


गांव जा सकते नहीं हैं बंद ट्रेने सड़क साधन


है यहां सब बन्द अब बस ख्वाब तेरा आयेगा


 


देहरी पे आकर पड़ा है सामां पिछले चार दिन से


कोरोना मिट जाये उससे तब ये खोला जायेगा


 


पहली फुहारें रिमझीमी सोंधी खुश्बू खेत की


मंदिरों में भक्ति वाला सावन कब अब आयेगा    


 


आज भी उम्मीद है दुनियां को बस पुरुषार्थ से


बन रही हैं वैक्सीनें परचम कोई फहरायेगा


 


हक 


 


विवेक रंजन श्रीवास्तव


 


जबलपुर


 


 


हक को साबित करने खुद के , हक के खातिर जिद करो


 


अंधेरे ही रोशनी दिखलाएंगे  , हक के खातिर जिद करो


 


 


जीत ही बस लक्ष्य अंतिम , बढ़ते चलो चलते चलो


 


हार हारेगी जरूर हद से बढ़ कर, हक के खातिर जिद करो 


 


 


शहीदों की कुर्बानियां देती रहेंगी, हक के लिए वो हौसला


 


जो जिताएगा हमें हर हाल , हक के खातिर जिद करो 


 


 


हर बार सहते आए हो , मन मारकर फरमान उनके


 


जो जीतना है आज बाजी ,हक के खातिर जिद करो 


 


 


रोते लोगों को हंसाना, है सच्ची इबादत खुदा की 


 


कभी खुद को गुदगुदाओ, हक के खातिर जिद  करो 


 


 


विवेक रंजन


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