डाॅ.आशासिंह सिकरवार
जन्म: 1.5.76
जन्मस्थान : अहमदाबाद (गुजरात)
पति का नाम : विपिन सिंह राजावत
मूल निवासी: जालौन ,उरई ( उत्तर-प्रदेश )
शिक्षा :एम.ए.एम.फिल. (हिन्दी साहित्य)
:पीएच.डी
(गुजरात यूनिवर्सिटी )
प्रकाशित तीन आलोचनात्मक पुस्तकें :
:1.समकालीन कविता
के परिप्रेक्ष्य में चंद्रकांत
देवताले की कविताएँ (जवाहर प्रकाशन )
(2017)
2.उदयप्रकाश की
:कविता (2017)(जवाहर प्रकाशन )
:3.बारिश में भीगते
बच्चे एवं आग कुछ
नहीं बोलती (2017)(,जवाहर प्रकाशन )
4.उस औरत के बारे में, 2020 जगमग दीप ज्योति पब्लिकेशन राजस्थान
अन्य लेखन -
कविता, कहानी, लघुकथा
समीक्षा लेख शोध- पत्र, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, आकाश वाणी से रचनाएँ प्रसारित ।
काव्य संकलन -
झरना निर्झर देवसुधा,गंगोत्री, मन की आवाज, गंगाजल, कवलनयन, कुंदनकलश, अनुसंधान, त्रिवेणी, कौशल्या, शुभप्रभात, कलमधारा, प्रथम कावेरी ,अलकनंदा, साँसों की सरगम ,गुलमोहर ,गंगोत्री इत्यादि काव्य संकलनों में कविताएँ शामिल ।
सम्मान एवं पुरस्कार :
1. भारतीय राष्ट्र रत्न गौरव पुरस्कार -पूणे
2.किशोरकावरा पुरस्कार -अहमदाबाद
3 अम्बाशंकर नागर पुरस्कार -अहमदाबाद
4.महादेवी वर्मा सम्मान -उत्तराखंड
5.देवसुधा रत्न अलंकरण -उत्तराखंड
6 काव्य गौरव सम्मान -पंजाब
7.अलकनंदा साहित्य सम्मान - लखनऊ
8.महाकवि रामचरण हयारण ' मित्र 'सम्मान - जालंधर
9.त्रिवेणी साहित्य सम्मान - दुर्ग ( छतीसगढ)
10.हिन्दी भाषा.काॅम सम्मान -मध्यप्रदेश
11,नवीन कदम साहित्य प्रथम पुरस्कार छत्तीसगढ़
12.साहित्य दर्पण प्रथम पुरस्कार भरतपुर राजस्थान
13 .राष्ट्रीय साहित्य सागर श्री इतिहास एवं पुरातत्व शोध संस्थान मध्यप्रदेश और देशभर से अनेकों सम्मान ।
सम्प्रति :स्वतंत्र लेखन
सम्पर्क
आदिनाथ नगर, ओढव, अहमदाबाद -382415 (गुजरात )
"शोकगीत " शीर्षक
जीवन में जितनी ईज़ा है
उतनी ही कठिन यात्राएं
एक सफेद घोड़ा मेरी तरफ दौड़ा आ रहा है
उसके पदचाप से टूट रही है मेरी नींद
जबकि सन्नाटे ने भर दिया है जिदंगी को अंधेरे से
कि चीर रहा है समय रोशनी की फांके
हमारे रोने को लिखा जा रहा है इतिहास में
जबकि खोजने पर भी नहीं मिलेंगे दुख के अवशेष
इस वक्त नहीं रखी जा रही है संग्रहालय में
सहज कर आदमी की भूख
एक दिन जीवा पर रखा रहेगा स्वाद
विमूढ़ होकर भूख को कंधे पर लादे
फिरते रहेंगे देर तलक
आदमी की हथेली पर दाना रखा रहेगा
संसार से बाहर होगें पक्षी
कलरव को तरसती रहेगीं पीढियाँ
नहीं होता दुख का निश्चित कोई काल
हर काल में वह अपनी जगह बनाता है
जब भी हुईं संक्रमित हवाएं
बच गया मनुष्य जिंदगी की ओट में छिप कर
फिर बच जाएंगे हम
कितने घटेंगे अपने भीतर
और कितने बचेंगे हम
कहना बहुत कठिन है
समय ने परिमाण नहीं बांधा
बंध गये हम
हमारी अपनी कमजोरियों ने
रख छोड़ा समय की पाटी पर सबक
अत्याधिक सुख के भीतर जब सांस लेता है दुख
धरती पर पसर जातीं हैं व्यथा की अतमाई जड़ें
चाहे जितना लीप लो
कि अंदरूनी तह में बहती है अदृश्य नदी
समय ने संताप से भर दिया है
अनबुझी प्यास को
जीवन का रथ चल देगा एक दिन
पीछे छोड़ते हुए चिह्न
ये शोक गीत छूट जाएंगे
कालान्तर में
फिर से डूब जाएंगे हम
प्रार्थनाओं में
हो जाएंगे समाधिस्थ धरती के प्रेम में
डॉ .आशा सिंह सिकरवार
अहमदाबाद गुजरात
कविता
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" अपराजिता "
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जब महसूस करती हूं
अपनी पराजय
निपट अकेली
एकांती क्षण में
अश्रुधारा बह निकलती
जैसे अभी-अभी फूटी हो
शिखर से भागीरथी ।
जो चाहती है
कल - कल बहना धरती पर
नही दिखता कोई
संपूर्ण भूभाग पर
खड़ी निर्झर पेड़ सी ।
सूरज ही आता है मुझसे मिलने
तब वही सोखता है
मेरे भीगे दामन को
जिसे दलित कहकर
धकेल दिया गया बाहर ।
तपने लगता है भूखंड
रसातल में चले जाते हैं सारे आंसू
बैठकर घने वृक्ष के नीचे
सोचती हूं
कैसे ज़रा बनकर झुका है
देखती हूं
उसके नि: स्वार्थ भाव को ।
वह नही पूछता राहगीर से
क्या है मज़हब ?
कौन जात हो ?
नही उसके चित में
कोई लिंगभेद ।
वह सबकी भूख को
देखता है एक नज़र से
सभी के लिए
मीठे फल
ठंडी छांह ।
कि लौट आती हूं अपने में
फिर से दौड़ने लगता है लहू
मेरी रगो में
जीने के जुनून के साथ
अभी और जीना है मुझे ।
मैं अपराजिता हूं
न हार सकती
नही रूक सकती
स्वयं से भी लड़ना है
अनेकों मोर्चों पर
फिर से खुद को तैयार कर रही हूं
आने वाली सैकड़ों लड़ाईयों के लिए ।
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डॉ. आशा सिंह सिकरवार
अहमदाबाद / गुजरात
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" यंत्रणा "
उसका दमन, तिरस्कार
उसकी यंत्रणा
उतनी ही प्राचीन है
जितना कि पारिवारिक जीवन का इतिहास
असंगत और मन्द प्रक्रिया में
उसने हिंसा को हिंसा की दृष्टि से
देखा ही नहीं कभी
वह स्वयं भी हिंसा से इंकार करती है
धार्मिक मूल्य और सामाजिक दृष्टि का बोझ
उसके कंधे पर रख दिया गया
'आक्रमण ', 'बल' , 'उत्पीड़न 'के
चक्रव्यूह में फँसती चली गई
उसने सहे आघात पे आघात
धकेल दिया गया
उसकी भावनाओं को भीतर
ज़बरन उससे छीन ली गई
उसकी स्वेच्छा
वह पूछती है कौन हैं वे अपराधी
अपराधियों को अपराध करने की प्रेरणा
कहाँ से मिलती है ?
इन्हें रोकने के उपाय किसके वश में हैं ?
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