डा वीना गर्ग
अवकाश प्राप्त हिंदी प्रवक्ता
शिक्षा-एम ए-हिंदी, संस्कृत, पीएचडी।
प्रकाशित पुस्तकें-काव्य संग्रह-आभास, फूलों के झरते पराग,चुन्नू मुन्नू रिंकी पिंकी बालगीत संग्रह।
सम्मान-वीरभाषा हिंदी साहित्य पीठ मुरादाबाद का ज्ञान रत्न सम्मान
सहारनपुर मंडल द्वारा साहित्य के क्षेत्र में सेवा के लिए सम्मान पत्र
आगमन संस्था द्वारा भावकलश सम्मान।
आकाशवाणी नजीबाबाद में काव्य पाठ एवं भेंट वार्ता।
विभिन्न साहित्यिक सामाजिक संगठनों संस्थाओं द्वारा असंख्य कार्यक्रमो में सम्मान ,निर्णायक,मुख्य आतिथ्य आदि
कविता -१
राधिका के श्याम
-------------------
हम तो तेरे प्रेम में कान्हा
निस दिन आंसू पीती हैं
तकती रहती राह तुम्हारी
मरती हैं ना जीती हैं।
कहकर चले गए तुम हमसे
लौट के ब्रज में आओगे
अश्रु विमार्जन करके मोहन
हम संग रास रचाओगे
इसी आस में ओ मधुकर हम
अब तक बैठी रीती हैं।
कैसे भूलें कृष्ण तुम्हें
हमको तो आस तुम्हारी है
ये बिरहा का ताप दुःखद
दर्शन रस प्यास तिहारी है
तुम तो भूले ब्रज को गिरिधर
हम पर क्या-क्या बीती है।
कविता - २-
एक अकेला सूरज
--------------------------
करना सारा जग उजियारा
एक अकेला सूरज है
बाकी है कितना अंधियारा
एक अकेला सूरज है।
जग में तो संताप बहुत हैं
तमस घनेरा पाप बहुत हैं
कैसे दूर करेगा सारे,
एक अकेला सूरज है।
अभी धूप लेकर आएगा
करो प्रतीक्षा प्राची में तुम
हार न मानेगा ये फिर भी
बड़ा हठीला सूरज है।
लाली छाई है अंबर में
पूर्व दिशा रह-रह मुस्काती
उसका प्रियतम आया फिर से
नया नवेला सूरज है।
कविता -३
-उजाला
------------
अब कहां पाऊं उजाला
हर तरफ बिखरा अंधेरा
भीड़ में पाषाण जग की
खो गया है गीत मेरा।
हर हृदय पत्थर सरीखा
फूल सा कोमल मेरा मन
कौन जाने दर्द मेरा
कौन समझेगा ये उलझन
कब ढलेगी ये निशा
पाऊंगी कब खोया सवेरा।
सो गया सब जग न जाने
नींद क्यों रूठी है मुझसे
चांदनी को ओढ़ इठलाती-
निशा कहती है मुझसे
आज क्यों मेरे हृदय में
है उदासी का बसेरा।
कविता -४
-मेघों तुम आ जाओ
--------------------------
आज बहुत प्यासी है धरती
मेघों तुम आ जाओ
नये नवेले रूप धरो तुम
अम्बर पर छा जाओ।
डाली-डाली झूम उठे
ऐसा तुम रस बरसा दो
सूखी वसुधा को अपनी
जलधारा से सरसा दो
खेती कर दो हरी-भरी
तुम देर न करना नटवर
गेहूं की बाली से झूमे
खेत-खेत भी सजकर
मोती जैसे दानों से
ये धरा आज भर जाओ।
भूधर पर लहके हरियाली
महकें आमों के वन
फूटें उत्स पत्थरों से भी
झूमे कानन-कानन
विरहाकुला यक्षिणी को तुम
प्रिय संदेश सुनाओ।
कविता -५
-फूलों के झरते पराग
---------------------------
फूलों के झरते पराग -सी
मधुमय कोमल
सीपी-सी रहती हूं मैं
सागर के जल में
रंग उषा के मैं ही भरती
नील गगन में
दीप शिखा सी कभी झूमती
गहरे तम में
मोती बनकर जड़ी हुई
संसृति डाली पर
तुहिन-बिंदु बनकर छाई
मैं ही कण-कण में।
४५, द्वारिकापुरी, निकट पार्क
मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें