नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

बुड्ढे का सावन


 


 


मौसम का बदला मिजाज


मिली तपन से निज़ात


आया मौसम बरसात।।


सावन में लग गयी आग काश


हम होते जवान।।


 


कभी हल्की फुहार कभी बौछार ही बौछार 


चुहुँ ऒर हिरियाली का राज


सावन कि घटाओं में छुपा चाँद


मदमस्त जवाँ दिलों में प्यार कि


खुमार।।


सावन में लग गयी आग काश हम


होते जवान।।


 


कहते है दिल कभी बूढ़ा नहीं होता


बुजुर्गो के दिल में भी आने लगी 


बचपन की याद बारिस का पानी


कागज कि नांव।।


सावन में लग गयी आग काश


हम होते जवान।।


बारिस में भीगना गॉव कि गलियों


में कीचड़ से लिपटे पाँव 


खांसी छींक बुखार माँ बाप की डांट फटकार 


बाग़ ,बगीचों का आम मस्ती का


बचपन बेफिक्री का नाम।।


सावन में लग गयी आग काश


हम होते जवान।।


 


बुंढीयाँ भी करती अपने बचपन 


जवां दिनों कि याद 


क्या हस्ती थी बारिस 


 में भीगा बदन


साँसों की गर्मी घूमते इर्द गिर्द मजनूं हजार ।।


सावन में लग गयी आग काश हम


भी होते जवान।।


 


बुधीयों का शौहर से गीले शिकवे लाख


सर्दी सताती कांपते जैसे


आम से लदी डाल


पके आम से पिलपिले तपिस से


लग जाती लू बुखार 


जब बहती मस्त बसंती बयार मौसम 


बदलने कि पड़ती तुम पर मार 


हमारे बुढ़ऊ शौहर जवां जज्बे के


प्यार के खाब हज़ार।।


सावन में लग गयी आग काश


हम भी होते जवान।।


कौन कहता है दिल बूढ़ा नहीं होता शारीर ने साथ छोड़ा दिल बीमार


चीनी की बीमारी रक्तचाप


जंजाल जिंदगी खांसते दिन


रात डाबर का च्यवन प्रास झंडू का केशरी जीवन बेकार।।


सावन को लग गयी आग काश 


हम भी होते जवान।।


 


बुड्डा सठिया गया सावन में लग


गयी आग वदन साँसों में गर्मी नही


जिंदगी में सावन दिल जलाये


आहे आये काश हम होते जवान।।


सावन में लग गयी आग काश हम


भी होते जवान।।


 


बीबी को देखते ही दम फुलता


सांसो धड़कन में जवाँ हुश्न याद


आती हो जाते जज्बाती 


सांसो धड़कन कि चेतावनी 


खबदार ।।


सावन में लग गयी आग काश हम


भी होते जवान।।


बुढ़ऊ हार नहीं मानते ताकत कि


जुगत लगाते काजू किसमिस बादाम अण्डा दूध मलाई खाते 


हाज़मा दे देता जबाब ताकत 


मिलती नहीं जाते रहते संडास।।


 


सावन में लग गयी आग बीबी


कि पड़ने लगी डांट।।


 


जब नौजवानो से हो जाती


मुलाक़ात मारते डिंग शुद्ध


देशी घी खा कर हुये जवान


तुम डालडा ,पिज्जा ,वर्गर वाले


क्या जानो जवानी क्या ?


 


जवाँ दिलों का देखते जब उन्मुक्त


प्यार अपनी जवां दिनों को 


करते याद उन्ही दिनों के सावन


के ख़ाबों को जी लेते आज।।


 


आह भरते सावन में लग गयी


आग काश हम भी होते जवान।।


 


सावन में बुढ्ढा देवर मगर क्या


करे भाभियां बुड्डा तो नकली


पेवर देवर काम का न काज का


बेकार।।


तकदीर को कोसती भाभियां सावन में लग गयी आग सावन


हुआ बेकार।।


लाखो का सावन आय 


जाय जवानी के दिन याद दिलाय


चला जाय


मोहब्बत तो दिये जैसी


जलते ही बुझ जाय


सावन भादों प्यार मोहब्बत कि


बरसात जिंदगी में जवां जज्बात


बुड्ढों के बस की नहीं बात। 


सावन में लग गयी आग जिया


जलाये मन दरसाये याद आये


जवानी के सावन की रात।।


 


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश


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