ओम नीरव कविता लोक कार्यशाला 67

कवितालोक की 67 वीं काव्यशाला का आयोजन प्रख्यात छंदकार इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर’ की अध्यक्षता और ओम नीरव के संयोजन-संचालन में सम्पन्न हुआ। काव्यपाठ का प्रारम्भ लखनऊ की कवयित्री भारती पायल की वाणी वंदना से हुआ। इसी क्रम में, 


मुरादाबाद से डॉ अर्चना गुप्ता ने वर्षा ऋतु का शब्द चित्र उकेरा- 


पावस ऋतु ने कर दिया, धरती का श्रृंगार 


गरज गरज कर मेघ भी, गायें मेघ मल्हार 


सावन के झूले लिये, आई है बरसात 


और गगन को मिल गया, इंद्रधनुष उपहार। 


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सीतापुर से अरुण शर्मा ‘बेधड़क’ ने ओजमय काव्यपाठ करते हुए कहा- 


लाख शूल बिखरे हों पथ में, पथिक तो आगे बढ़ता है, 


चलकर अंगारों पर भी, इतिहास नया वो लिखता है। 


होती बाधक कहाँ विसंगति, राष्ट्र हितों के लक्ष्यों में, 


ऐसे वीर बांकुरों को कवि, शत शत वन्दन करता है।। 


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बैतूल मध्य प्रदेश से भीमराव झरबड़े ने देश की सेना पर गर्व करते हुए कहा- 


तैयार है अब मौत का सामान सब। 


करने लगे हथियार भी अभिमान सब। 


विस्तार जो लेने लगी है सरहदें,


बन्दुकें होने लगी बलवान सब।। 


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बाराबंकी से डॉ शर्मेश शर्मा ने कोरोना-त्रासदी में मधु रस घोलने का सुंदर प्रयास किया- 


कान में खुसुर फुसुर बतियाना छोड़ दिया। 


होटल पिकनिक माल घुमाना छोड़ दिया। 


दूर से ही अब फ्लाइंग किश कर लेता हूं। 


हमने उनको हाथ लगाना छोड़ दिया।। 


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गोचर चमोली उत्तराखंड से भारती जोशी ने गीत के माधुर्य से रस विभोर कर दिया- 


जब भी बसन्त पायल पैरों में बाँध आया। 


तब-तब हृदय स्वयं का हमने उदास पाया।


संवेदना व्यथित थी कुछ मौन, व्यक्त कुछ थी, 


खोकर सिमट उन्हीं में नियमित समय बिताया। 


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मोहमदी खीरी से आकाश त्रिपाठी ने घनाक्षरी छंद सुनाया- 


इश्क़ के नशे में झूम कर लिखने लगे तो,


गीत दर गीत सिर्फ प्यार हमने लिखा।


और यदि देश को ज़रूरत कभी पड़ी तो,


लेखनी से अपनी अँगार हमने लिखा।"


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सीतापुर से इंजी अंबरीष श्रीवास्तव सावन की छटा का शब्दांकन कुछ इस प्रकार किया- 


सावन में देखो सखे, घटा घनघोर छायी,


चातक सा प्यासा मन, प्रिय को बुलाता है।


प्यासी हो निहारे मित्र, धरती जो खिली-खिली,


'अम्बर' ये हौले-हौले, रस बरसाता है।।


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लखनऊ से भारती पायल ने युगीन संदर्भ में कटाक्ष करते हुए गीतिका सुनाई- 


लोगों की आँखों पर कैसे मोटे मोटे जाले हैं। 


संत बे फिरते जो बगुले, दिल के कितने काले हैं। 


बाज तुम्हारे पल मैं सारे पल में देती नोच मगर, 


मेरे मुंह पर मर्यादा के लटक रहे कुछ ताले हैं। 


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लखनऊ से संचालक-संयोजक ओम नीरव ने गीत सुनाया- 


बार-बार क्यों वही कहानी कालचक्र दुहरा जाता है। 


रजनी की कालिमा दिवस के पन्नों पर बिखरा जाता है।


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