सीमा शुक्ला अयोध्या

कृषक-व्यथा 


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आज कवि मन कह रहा है


कुछ व्यथा उनकी लिखूँ मैं ,


दर्द मे जीते सदा जो


कुछ कथा उनकी लिखूँ मै ।


 


अन्नदाता एक पल ,करते 


नही विश्राम हो तुम ,


शीत हो या धूप , वर्षा 


नित्य करते काम हो तुम !


 


चीर कर सीना धरा का 


अन्न के मोती उगाते ,


भूख सहकर भी स्वयं नित


इस जहाँ को तुम खिलाते !


 


तुम कृषक हो अन्नदाता


देश का आधार हो तुम !


कर्ज में डूबे हुए , हालात 


से लाचार हो तुम !


 


है टपकती छत न तुमको


रात भर है नींद आती ,


ब्याह बिन बेटी पड़ी घर


है सतत चिंता सताती ।


 


सोचता है कौन अगणित


दर्द जो करते सहन तुम ,


हार जाते हो अगर , सर 


बाँध लेते हो कफन तुम !


 


सुधि नहीं जिसकी किसी को


कुछ दशा उनकी लिखूँ मैं !


आज कवि मन कह रहा है


कुछ व्यथा उनकी लिखूँ मै !


 


सोचती हूँ क्या लिखूँ जो भी 


यहाँ मजदूर हो तुम ,


बेबसी जीवन तुम्हारा 


हाल से मजबूर हो तुम !


 


ये महल,अट्टालिका अपने 


करों से तुम बनाते ,


जिंदगी अपनी मगर तुम 


झोपड़ी में हो बिताते !


 


है लहू मिश्रित तुम्हारा 


जो बना संसार में है ,


बह रहा तेरा पसीना


खेत या व्यापार में है !


 


नित्य करते कर्म , सहते


दर्द हरपल तन तुम्हारे ,


पल रहे सुख,चैन के सपने 


कहाँ पर मन तुम्हारे !


 


धर्म क्या है , जाति क्या


इसकी नहीं परवाह तुमको ,


पेट भरने के लिए दो 


रोटियों की चाह तुमको !


 


हैं अनेकों स्वप्न लेकिन 


जिन्दगी भर तुम तरसते ,


गोद में माँ की सिमट कर


भूख से बच्चे बिलखते ।


 


हो कहाँ भगवन सुन लो 


हैं बड़ी दारुण व्यथायें ,


तुम हरो क्रंदन जहाँ के 


पीर , दुर्दिन की दशायें !


 


है द्रवित मन आज मेरा 


कुछ तृषा इनकी लिखूँ मैं ,


आज कवि मन कह रहा है


कुछ व्यथा उनकी लिखूँ मै !


दर्द में जीते सदा जो 


कुछ कथा उनकी लिखूँ मैं !


 


   सीमा शुक्ला अयोध्या।


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