कृषक-व्यथा
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आज कवि मन कह रहा है
कुछ व्यथा उनकी लिखूँ मैं ,
दर्द मे जीते सदा जो
कुछ कथा उनकी लिखूँ मै ।
अन्नदाता एक पल ,करते
नही विश्राम हो तुम ,
शीत हो या धूप , वर्षा
नित्य करते काम हो तुम !
चीर कर सीना धरा का
अन्न के मोती उगाते ,
भूख सहकर भी स्वयं नित
इस जहाँ को तुम खिलाते !
तुम कृषक हो अन्नदाता
देश का आधार हो तुम !
कर्ज में डूबे हुए , हालात
से लाचार हो तुम !
है टपकती छत न तुमको
रात भर है नींद आती ,
ब्याह बिन बेटी पड़ी घर
है सतत चिंता सताती ।
सोचता है कौन अगणित
दर्द जो करते सहन तुम ,
हार जाते हो अगर , सर
बाँध लेते हो कफन तुम !
सुधि नहीं जिसकी किसी को
कुछ दशा उनकी लिखूँ मैं !
आज कवि मन कह रहा है
कुछ व्यथा उनकी लिखूँ मै !
सोचती हूँ क्या लिखूँ जो भी
यहाँ मजदूर हो तुम ,
बेबसी जीवन तुम्हारा
हाल से मजबूर हो तुम !
ये महल,अट्टालिका अपने
करों से तुम बनाते ,
जिंदगी अपनी मगर तुम
झोपड़ी में हो बिताते !
है लहू मिश्रित तुम्हारा
जो बना संसार में है ,
बह रहा तेरा पसीना
खेत या व्यापार में है !
नित्य करते कर्म , सहते
दर्द हरपल तन तुम्हारे ,
पल रहे सुख,चैन के सपने
कहाँ पर मन तुम्हारे !
धर्म क्या है , जाति क्या
इसकी नहीं परवाह तुमको ,
पेट भरने के लिए दो
रोटियों की चाह तुमको !
हैं अनेकों स्वप्न लेकिन
जिन्दगी भर तुम तरसते ,
गोद में माँ की सिमट कर
भूख से बच्चे बिलखते ।
हो कहाँ भगवन सुन लो
हैं बड़ी दारुण व्यथायें ,
तुम हरो क्रंदन जहाँ के
पीर , दुर्दिन की दशायें !
है द्रवित मन आज मेरा
कुछ तृषा इनकी लिखूँ मैं ,
आज कवि मन कह रहा है
कुछ व्यथा उनकी लिखूँ मै !
दर्द में जीते सदा जो
कुछ कथा उनकी लिखूँ मैं !
सीमा शुक्ला अयोध्या।
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