कविता:-
*"अपने"*
"यथार्थ धरातल से जग में,
जूड़ पाते जो जीवन सपने।
सपनो की इस दुनियाँ में भी,
वो तो होते फिर से अपने।।
अपनत्व के अहसास संग फिर,
कुछ पल चलते साथी अपने।
जीवन पथ पर चलते- चलते,
कुछ तो सच होते सपने।।
स्वार्थ की धरती पर देखो,
कैसे-देख रहे वो सपने?
मोह-माया के बंधन संग,
कभी बन सके न वो अपने।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.abliq.in
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः 17-07-2020
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