कमल कालु दहिया

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    " *भोर* "


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कालिमा का वक्त निगल रहा है,


 भोर का आखिरी क्षण निकल रहा है।


 


 धुमिल होकर डूब रहा


 यह सरोबार सा समंदर,


   आ रहा लालिमा फराते


 सूर्य बनके एक मंजर।


 


 खिलता कमल मुरझाने से झिलमिल रहा है,


भोर का आखिरी क्षण निकल रहा है।


 


    हर शेष तारा खामोश 


शायद इनका यही वक्त था,


   जिसने सबको मोह लिया 


वो चांद किसी और अस्त था।


 


 तपन इतनी पीपल की छांव पिघल रहा है,


 भोर का आखिरी क्षण निकल रहा है।


 


 स्वप्न तनिक विचलित हो


   यह पल किस और गया,


 छूट गई अनकही बातें


    जिंदगी का वो भोर में दोर गया।


 


 पलक से छत पर वह दिनकर खिल रहा है,


  भोर का आखिरी क्षण निकल रहा है।।


 


 


    रचनाकार 


*कमल कालु दहिया*


  जोधपुर, राजस्थान


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