इक उम्र गुजार चुका हूँ बाक़ी उम्र मुझे गुजारने दो
जो मुझसे गुस्ताखियां हुई थी अब उन्हे सुधारने दो
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रुख़सत ए जहाँ तो मुझको होना है इक रोज जब
चीख़ पुकार मचेगी जहाँ में तो फ़िर उन्हें पुकारने दो
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उसके तन और बदन से खेलें थे हम बहुत हर दफ़ा
उस लम्स की हरारत को ज़ेहन में फिर मुझे उतारने दो
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तेरे सुर्ख़ होंठ वफ़ा में ढ़ले हुए गेसू शानों पे लटके हुए
ज़ेरो ज़बर उसके गेसुओं को फ़िर से मुझे सँवारने दो
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घर क्या बना लिया मैंने जब उसके घर के सामने ही
अब उजाड़ रहे है लोग घर मेरा तो उन्हें उजाड़ने दो
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इस मुक़म्मल जहाँ में उसके जैसा न हँसी कोई सनम
अगर वो ख़ुद पर इतराती हैं यारों तो उसे इतराने दो
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तुझें हवा भी छुए तो ग़म अलताफ को होता है बेहद
हर शय की नज़र हैं तुझपे वो नज़्र मुझे उतारने दो
अलताफ हुसैन बेलिम जोधपुर
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