कहां से लाऊं
आज दिहाड़ी नहीं मिली
रोटी कहां से लाऊं
अरी, पगली तुम लोगों
को कैसे खिलाऊं
बिकने के लिए तो
गया ही था
बीच चौराहे पर
खड़ा ही था
किसी के द्वारा
मैं नहीं खरीदा जा सका
आज इन हाथों में
एक भी पैसा नही पा सका
आज दिन भर नहीं खा सका
किसी ने देखा भी नहीं
सबकी नज़रों में झांका
सबने मुझे घूर कर ताका
मानों मैं कोई अपराधी हूं !
बाबूजी- बाबूजी
कह-कहकर गिड़गिड़ाया
सब वहां से भाग खड़े हुए
मैंने कहा, आज ऐसा क्यों है
जो देख रहा हूं वैसा क्यों है
किसी एक पढ़े लिखे
मज़दूर ने कहा,
जब तक कोरोना रहेगा
तब तक यही हालात रहेंगे
इस महामारी मैं हम लोगों को
छटपटाते हुए भूख का करोना
ऐसे ही मार डालेगा
इन रसूखदारों का क्या
इनके घर के चूल्हे
तो हंस रहे हैं
इसीलिए इनके
चेहरे पर हंसी है
हम लोगों का क्या
अगर कुछ दिन
ऐसे ही रहा
तो हम लोग
थाली और ताली बजाने लायक
भी नहीं रह जायेंगे ।।
डाo सम्पूर्णानंद मिश्र
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