दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

भीग रही आंखों में देखो


कई नयी पुरानी स्मृतियां


राह निहारे आता होगा भाई मेरा


राखी को ले ना हो विस्मृतियां। 


 


बचपन से अब तक की भूली बिसरी


यादों को जी लूंगी खुल हंसकर


आज लिपट भाई से इतराउंगी


कैसा है अब सपनों का घर।


 


उसने हंस दी राह निहारे


बहना खड़ी हुई है द्वारे


ममता की कैसी है माया


कैसी है री बता पुकारे।


 


बोला आंखों में आंसू को देख


कुछ पाने को खोना भी है पड़ता 


खुलकर हंसने वालों को भी


रोना भी तो है पड़ता। 


 


मन भावुकता में बह चला था


देख राखी, अक्षत, रोली, चंदन


थाल सजाये रेशम के धागों के संग


सावन में खड़ी है लेकर रक्षाबंधन। 


 


 


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल 


महराजगंज, उत्तर प्रदेश। 


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