दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

विस्तार चाहने वाले अक्सर 


सुख को ही खो देते हैं


कहां - कहां ढूंढूं मैं तुमको


आखिर किसको सुख देते हैं।


 


सुख आखिर तूं है कहां


तेरा कहां ठौर ठिकाना है


तूं नहीं मिला मुझको अब तक 


क्या तेरा ताना - बाना है ?


 


ढूंढा बन्द दिवारों में


गलियों और चौबारों में


बने कई तल के मकां देखे


नहीं मिला तूं धनवानों में।


 


सब तुझको ही ढ़ूढं रहे थे


आखिर तुझसे ही पूछ रहे थे


क्या सुख को तुमने देखा है


आखिर सुख की क्या रूपरेखा है‌।


 


मैं तो दु:ख का साथी हूं


हर रोज मुझी से मिलता है


उम्र के अंतिम पड़ाव पर 


धूंधली सी तस्वीर तुझी से मिलता है।


 


मैंने भी अब ठाना है


सुख के रहस्य को खोलूंगा


बचपन में संग खेले थे हमने


फिर अब मैं संग खेलूंगा।


 


पर कैसा ये खेल निराला है


अब सबका बोल बाला है


सुख जाने कहां तूं चले गये 


आखिर तुझसे भी ठगे गये।


 


तेरे लिए दिन-रात एक करूं


तेरी तलाश जारी है


कल्मष हो या हो अपयश


अब मेरा भी प्रयास जारी है।


 


निद्रा की मादकता से जागा हूं


सुख के सपनों से दो चार हुआ


तेरे ही ऐसी प्रतिकारों से


व्याकुल छलने से दो चार हुआ।


 


पड़ा हुआ है जिन्दा शव


जीवन की जड़ता का अनुभव


सुख राह निहार आंखें पथराई


कुटिल चालों से आंखें भर आईं।


 


सत्य और शुचिता को देखो


यदि सब अपना लेते हैं


जो मिला मुझे संतोष हुआ


दु:ख ही सुख है सुख ही दु:ख है


तेरा चलना भी चुपचाप हुआ।



    -दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


      महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


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