डॉ. राम कुमार झा निकुंज

कागज़ कलम दवात


 


स्मृति के पन्नों पर आज विदित,


जिंदगी कागज कलम दवात।


हाथ रंगे काली स्याही से ,


गगन घनघोर घटा बरसात। 


 


बम्बू शाखा छील छील कर,


थी कलम बनायी विविध तरह।


पास स्याही दवात सुलेखा,


कागज स्वर्णाक्षर लेख सुघर।


 


कलम भींगों के हर बार मैं,


स्याही कलम व्यक्त अभिलेख।


कलम फाउंटेन शान गज़ब,


सुलेखा इंक बघारे शेख। 


 


मुक्ता मणि सम लेखन सुन्दर,


कागजी पृष्ठ कलम की नींब।


मातु पिता अभिभावक प्रेरित,


स्वर्णाक्षर कागज प्रतिबिम्ब। 


 


नित सुलेख पर मिली प्रशंसा,


व्यक्त भाव कागज लेखन पर।


पुलकित मन आह्लादित चितवन,


नित ले कागज कलम दवात। 


 


सुलेखनार्थ पड़ी मार बहुत,


बचपन में जो अबतक है याद।


पूर्ण किया निज शिक्षा जीवन,


नित ले कागज कलम दवात। 


 


कब्ज़ा अब कलम दवात आज,


प्लास्टिक में बँधे रिफिल समाज।


गायब हुई दवात सुरेखा, 


दुखी कागज मोबाइल गाज। 


 


कागज कलम दवात पूँछ कहँ,


अब डिजीटल नवयुग आगाज।


पत्र लेख अन्तर्मन प्रियजन,


ले वाट्स एप फेसबुक आज।


 


कहाँ खपत हो कागज का अब,


है संगणक मोबाइल सेव। 


शोभा बन दवात कलम अब,


अनज़ान नये आज के वेव।


 


परिवर्तन युग परिधान नये,


भूले मसि कलम दवात गए।


खाली है कागज के पन्ने,


स्मार्ट मोबाईल एप लिए।


 


कविः डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


नई दिल्ली


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