डॉ. राम कुमार झा निकुंज

मीत सुलभ नवनीत कहँ , चले मनुज दुर्नीति।


तृष्णा अपरम्पार जग , दुर्लभ प्रकृति प्रीति।।१।।


 


शोक चिन्तना कवि सलभ , ध्रुव कोराना आज।


जब तक टीका न बने, पड़े काल की गाज।।२।।


 


रहें गेह में संयमित, कोरोना के काल।


आयुर्वेदिक चिकित्सा , रखे सभी खुशहाल।।३


 


मास्क बनाये घर स्वयं , लगा लगाएँ आप।


बचे पित्त अरु कफ़ से , दूरी मेल मिलाप।।४


 


धोएँ साबुन हाथ को , दिन में वारम्बार।


कोरोना से ख़ुद स्वयं , करें नियम उपचार।।५


 


मनुज शत्रु है स्वयं का , चले स्वार्थ के राह। 


खटमल पिस्सू जोंक सब,चूस प्रकृति रस चाह।।६।।


 


अवसादन अनिवार्य है , प्रकृति बनी अब कुप्त।


कोरोना अभिशाप बन, करे मनुज को सुप्त।।७।।


 


धन लालच में जग पड़ा , काट रहा है वृक्ष।


नदी पोखर सागर गिरि , आहत नभ अन्तरिक्ष।।८।।


 


बाढ़ भूस्खलन आपदा , भूकम्पन तूफान। 


वज्रपात हर व्याधियाँ , समझ प्रकृति अपमान।।९।।


 


लाखों लाशें बिछ रही, उजड़ा सुखद निकुंज।


मातम जग छायी हुई , मौन पड़ी अलिगूंज।।१०।।


 


डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक(स्वरचित)


नवदेहली


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